कबाड़ी आजाद नज्म

सिकन की भूख मिटाने के खातिर,
नंगे पांव धूप में चलने वाला,
कबाड़ी बन कर कबाड़ लेने वाला
पाव फुले से मालूम होते,
प्यास की तड़प से बेहाल होना,
मैंने देखा जब नन्हें पावों को,
सने हुए धूल से चेहरे और बस्तर,
कुछ बिन कर कबाड़-घर के तरफ जाते हुये,
अपने सामान को फरोख्त करते हुये
एक गिरोह जैसे मालूम होता हो,
जो भूख से लड़ने के लिए निकला हो,
धूप में जैसे तपने के लिए निकला हो,
खुद को बाजारों में बेचने निकला हो,
लोगों की डांट को सहने निकला हो,
आंखो में किसी के चुभने के लिए निकला हो,


नंगे पाव बच्चों को देखा,
धूल चेहरे पे साफ जाहिर देखा,
और उसमें टिमटिमाती हुई आंखों को देखा,
वापस लौटते चेहरे पर मुस्कान देखा,
हाथों में चंद रुपये कुछ सिक्के देखा,
ठिठोलियाँ करते हुऐ वहां से निकले थे,
आज कुछ अच्छा खाने और पीने वाले थे,
तमाम थकान को जैसे भूल बैठे हो,
ये बच्चे है कल का भविष्य खराब कर बैठे हैं,

कौन करेगा मदद, किसकी तरफ से पहल हो,
जिनकी उम्र पढ़ने की, खिलौने से खेलने की हो,
वो हर दिन बाजारों से जिंदगी से लड़ने निकले हो,
वो और दौर था कि जब बादशाह दौरे पर निकला हो,
किसी के हाल, किसी की माझी देखने निकला हो,
मिस्कीन की हालत, बाजार की हालत देखने निकला हो,
गदा की शक्ल में, कभी व्यापारी बनकर निकला हो,
जैसे अदल कायम करने की पहल करने निकला हो,

खलिफा थे तो मेहनत करके खाते थे,
अपने तन पे लिबास मेहनत से कमाते थे,
कोई बीमार आ जाए तो तीमारदारी भी करते थे,
खुदा का खौफ रखते थे, मोहब्बत करने वाले थे,
बड़ा जिगर रखते थे, दुश्मन भी जिनसे कांप उठते थे



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