. @SabeelAhmad
1. मैं नातवाँ, मैं ना समझ,
ये इश्क़ है, मेरा मकान,
तू चासनी,किसी माह की,
मैं आज हूं, तू मेरे साथ है,
ये रात है, कि जाता नहीं,
वो सुबह जब आता नहीं।
मैं निःशब्द हूं तेरे हुश्न पर,
मैं क्या कहूँ, तू ही बता,
दिल चाहता, तू मेरे पास हो,
तेरे हुश्न को सवार दुं,
तेरे तन को वो गुलाब दुं,
तू अत्र सी महक उठे,
जहां मेरे इश्क़ का गवाह बने,
तेरे होंठ खुले, मोती गिरे,
तुझे ख्याल भी है, तू कितना अजीज है,
तू पुरखलुश, तू महजबीं,
तेरे बात से फूटी कोई चश्म है,
जो कहे तो मोती टपक पड़े,
जो चहकती है तो पंछी उड़ पड़े,
तेरी राह में खिलेंगे फूल,
तू हर अदा दिखलाये जा,
किसी शायर का कोई ख़्वाब हो,
मैं तुझे हमेशा पड़ता रहूं!
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2. गदा की शक्ल में नजर आया एक बादशाह,
जो निकला था वफ़ा की तलाश में एक दिन।
तंग लिबास के साथ गुजरा उसके गली से,
हया न आयी वह उसको एकटक तकता रहा।
उसे खबर नहीं कि वो उसके लिबास पर हँसते थे,
उसे लगा कि कोई अदा उन्हें भी पसंद आयी।
मुस्कराता हुआ महबूब की तलाश जारी रखा,
चाक सीने को वो हर रात फिर करता रहा।
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3. मौसम के नमूने
दिसम्बर तो कब का चला गया,
यादों का पुलिंदा देता चला गया।
जनवरी हांथ से फिसल रही,
दो बातें घर की सुनकर,कट रही,
फरवरी में फूलेंगे-फलेंगे क्या,
नाजुक दौर है अब अपना साहेब।
मार्च तक पतझड़ भी आ जायेगी,
बसन्त का मौसम दुखती रगों पर हाथ फेर जायेगी।
अप्रैल में अपनापन कोई दिखायेगा,
कोई बड़कपन कोई लड़कपन दिखायेगा।
मई में शायद मस्तियों की बहार होगी,
घूमने के शौकीन वालों में हम नहीं होंगे।
जून की दोपहरी में सब सुख जायेंगे,
जुलाई आते-आते सब मेवे बन जायेंगे।
अगस्त तो अपने देश की आजादी का दिन है,
एक आइसक्रीम खाओ और ख़िलाओ।
सितम्बर तक अम्बर भी बरस चुके होंगे,
लौटकर घर कौन वापस आता है।
अक्टूबर तो गांधी का दिन है,
गांधी नाम तो एक विचारधारा है।
नवम्बर सर्दियों का आलम होगा,
दिसम्बर में कई वादें टूटेंगे,नई इबरत हासिल होगी।
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4. डरावनें ख़्वाब
बेख़बर के आलम में तुम क्या करते हो,
बैठे-बैठे कोई ख्वाब देख लेते हो क्या,
मुफलिसी वाले ख़्वाब देखते हो...या
अमीरों वाले ख्वाब भी आते हैं क्या,
ख्वाब...ख्वाब...डरावने ख़्वाब!
दिहाड़ी मजदूर से कैसा सवाल पूछते हो
ख्वाब देखने की फुर्सत कहां है हमें,
दो जून की रोटी का इंतजाम करना है
फ़ाक़ा करते हुए भी कभी सो जाना है,
काम चला गया,हड़ताल हो गयी
घर कैसे चलेगा,बच्चे क्या खायेंगे,
कई सवाल नजरों के सामने दिखते हैं
कोई ख़्वाब बेचे भी तो मैं नहीं खरीद सकता,
काम की तलाश में घंटों पुल के नीचे खड़े होना
काम न मिले जब, मायूस होकर घर चले आना,
कैसा पहाड़ टूटता है, उस वक़्त
कितनी बिजलियां गिर जाती हैं,
ख्वाब...ख्वाब...डरावने ख़्वाब!
अच्छा सुनो!
कुछ अच्छे ख्वाब का जखीरा है क्या?
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दिल जब तक न भरे महफ़िल न जाना,
मुतमईन होना तो बस एक बहाना,
दर्द बाटना दो बातें करके किसी से,
अच्छा लगता है तब भी,जब न समझे कोई,
मुख्तसर बात करने का रिवाज आम करना,
ज्यादा बोलने का मज़ा फिर मौत न हो,
कशमकश क्या-क्या हैं इस दिल में,
कैसे-कैसे राज पोशीदा हैं दिल में,
उल्फत बेकरारी का आलम छा जाये,
खुद को पहचानने का मकसद मिल जाये,
तन्हा जब कोई शख्श होता है, ऐ सबील!
अपनी खूबियों को तराश सकता है।
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कुछ सवाल
कुछ सवाल पूछे जाएंगे,
लाजिम है, क्यों न पूछे जायेगें,
हमारे हक; खुशियों को तबाह करने वाले,
किसी के लिंच होने पे खुशी मनाने वाले,
डर का पैगाम लोगों में खूब बांटा,
नफरत के पेड़ को खूब सींचा,
तोहमतें डाल कर किसी कौम पर,
सरकार की कमियों को छिपाने वाले,
मशाल जलाया,उसमें जमात शब्द भी मिलाया,
क्या खूब बीरबल की खिचड़ी बनवाई,
लोगों में उसको इस कदर आम किया,
मीडिया ने भी खूब नंगा नाच किया...
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बीमार होने की पहली सीढ़ी
मन में इतना असंतोष क्यों पनप रहा,
क्या बीमार होने की ये पहली सीढ़ी है।
किसी की बात भी सुई की तरह चुभती है,
जो बात पसंद नहीं, बुरी लगती है।
पढ़ने-पढ़ाने का सिलसिला,खत्म क्यों होता जा रहा,
घर बैठे मन चिढ़चिढ़ा-सा क्यों होने लगा है,
क्या बीमार होने की ये पहली सीढ़ी है।
नौकरी की तलाश में,कई साल हैं गुजारे,
डिग्री, नॉलेज बहुत है साहेब;फिर बेकार क्यों हैं इतने सारे,
स्किल-इंडिया,कौशल विकास, इंजीनियरिंग, किसी ताक के सहारे,
बुरे लगने लगे जब मेडल तो दीवार से हैं उतारे।
बातें कर लेते थे बड़ी-बड़ी,पर अफसोस कोसों दूर था इसका प्रैक्टिकल,
उम्र तो ऐसे बढ़ती जा रही, जैसे पानी टँकी का कोई लेवल,
हर बार सवाल यही उठता है, जहन से...
क्या बीमार होने की ये पहली सीढ़ी है।
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एक ईंट शिद्दत से हवा में उछाला है,
और चाहते हो कि न गिरे तुझपर,
ऐसा मुमकिन भी तो तभी हुआ,
घायल और हुए,निशाना तेरा लगा।
मतलब खुद से रखोगे,तो टूटेंगे रिश्ते,
साथ चलना,रज़ामन्दी के साथ बेहतर है,
जानते हो तुम भी कि जिया जा सकता है तन्हा,
खुशियां ढूंढ कर लाना एक आंगन में,बहुत मुश्किल होगा।
दरारें पड़ती हैं जब रिश्तों में,
घर का घर, इंसान फना हो जाता है,
पेड़ से पत्ते टूट कर नहीं जुड़ते,
नई साख, नई कोपलें, नई होती हैं।
रात को देर तक जागने का सिलसिला न रहा,
शायरी के चाशनी से हम कुछ दिन महरूम रहे,
बात अब नहीं होता किसी भी बात पर,
स्याह बादल से हो गये हैं कुछ रिश्ते यहां।
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बेरोजगार नौजवान
गुनाहों में थोड़ा-थोड़ा सभी मुलव्विस हैं,
किसके ऊपर अब कीचड़ उछाला जाये,
दागदार दामन दिख ही जाते हैं,
किसे अब सच या झूठ कहा जाये।
हमारी आदतें इंसान को रुस्वा करती हैं,
बड़ा मतलब परस्त बन गया है आजकल,
मोहब्बत बांटने का रिवाज अब नहीं दिखता,
पहल खुद से भी नहीं होती और सामने से भी नहीं होता।
ये उम्र यूं ही गुजरती जा रही है,
मतलबी होने का खुराक देते जा रही हैं,
चिड़चिड़ापन जहन में तारी है कुछ इस कदर,
कि कब नौकरी लगेगी और आबाद होंगे।
लोगों से कट करके रहने का हुनर सीखा जा रहा है,
बड़ा अजीब लगता है किसी महफ़िल में यूं ही चले जाना,
किसी के किस्से चर्चा में खूब रहते हैं आजकल
हमारा हाल तो यह है कि कोई पूछता भी नहीं।
सवाल खुद से; यही पूछा जाता है,
कि अब और कितने दिन यूं ही तन्हा फिरोगे,
तुम्हारे हम उम्र नौजवान कामयाब हो गये,
ये सिलसिला कब थमेगा,रात से दिन कब होगी।
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सोशल मीडिया नफरत
सच में बीमार हैं कुछ अच्छे लोग,
किसी एक कौम से नफरत करते हैं,
कभी पास जाकर,जानने की कोशिश न कि,
कैसा था वो माज़रा,किसने कितनी गलती की।
शायरी लिखते हैं, तंज करते हैं,
कभी अपनी कभी उनकी नहीं पढ़ते हैं,
जो देखा सोशल मीडिया पे...पट्ट से बोल पड़ते हैं,
दोष न होने पर भी दोषी बताते हैं,
फिर उनके नस्लों को, क्या-क्या कह डालते हैं,
जहालत का खुलेआम बाजार फिर लगता है,
कमेंट में गालियों की बौछारों से सैलाब आता है।
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मैं एक बाग़ी था
मैं एक बाग़ी था
इक
ख्वाब था या मैं बागी था
जो
धुंधला-सा मेरे जहन में है,
लड़ रहा
था मैं इक सिस्टम से
जिसका
मैं अब इक हिस्सा हूं,
जॉब
मिलने के आसार नजर नहीं आते
रिज़्क़
की तंगी में उलझा हुआ सा हूँ,
इक दिन
उठा ली बंदूकें,बन
बैठा मैं बागी
करने
लगा अदल तमाम मसलों का,
इंसाफ
के लिए दरवाजा खटखटाया था,
मीडिया
ने मुझे दहशतगर्द बता भी दिया
चैनलों
पर नंगा नाच हुआ,
स्क्रिप्ट
भी खूब लिखा गया,
घर पर सबूतों के अंबार लगाये गये,
मीडिया
ने फलाने से लिंक बता भी दिया,
चार
दलाल बहस करने आ भी गये,
किसी
ने अपनी बोटी बेची,किसी
ने अपनी जमीर,
किया
गर्म माहौल जमाने का...
जैसे
जर्रा-जर्रा कांप गया,
कुछ ने
घर बैठे गली दी,
कुछ ने
दी भई शाबासी,
बन गया
जैसे गब्बर,प्रोफेसर
आदित्य,
प्रशासन
की अब आंख खुली,
हुआ
एनकाउंटर का एलान,
किस्सा
खत्म करने का एलान हुआ।
इक
ख्वाब था या मैं बागी था
जो
धुंधला-सा मेरे जहन में है।
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फितरत का कारोबार
फितरत का कारोबार हुआ है,
अंधों की...नगरी बनी है,
फितरत का कारोबार हुआ है।
घोल जहर का बाट करके,
घूमे चारों ओर,
फितरत का कारोबार हुआ है,
कभी इधर का...कभी उधर का,
बो कर पेड़ बबूल का...नाचे चारी ओर,
फितरत का कारोबार हुआ है।
मिले कभी तो मुँह बिचकाये,
औरों को भी बहकाये,
घर-घर फुट डलवाये,
फितरत का कारोबार हुआ है।
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बॉलीवुड संगीत
ये इश्क़-इश्क़ वाली बातें,
करने आई जो छत पे,
थोड़ा नयन मटकाए,
थोड़ा जुल्फें को सवारें,
ये इश्क़-इश्क़ वाली बातें।
करने आई जो छत पे।।
चलते-फिरते, नजरे झुकाए,
थोड़ा दुप्पटे को सवारें,
ये इश्क़-इश्क़ वाली बातें।
करने आई जो छत पे।।
दो कदम बढ़े आगे-पीछे,
थोड़ा नक्शे को सवारे,
थोड़ा बलखाकर, मुस्कराए,
ये इश्क़-इश्क़ वाली बातें।
करने आई जो छत पे।।
छत से जो देखे आगे-पीछे,
कोई उसको न देख पाए,
वो नयन मटकाए,
बस मुझे देखे जाए,
ऐसी है कुछ अदायें,
ये इश्क़-इश्क़ वाली बातें।
करने आई जो छत पे।।
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गजल
इंतजार क्यों करे कोई,
आब्दीदा होकर चले कोई,
वो मुलाकात दो पल का था,
याद में कभी-कभी आये कोई,
ख़्वाब में दीदार करना भी बहाना है,
अपने महबूब के पहलू में सोये कोई,
जुल्फें बिखरा कर,लटों से खेले कोई,
दिलकश नज़रों से मोहब्बत करे कोई,
भरम का पालना नज़रों से गिर जाना,
उठकर सज़दा किसी महबूब का करे कोई।
माफी तलब तो कुछ इस अंदाज में करे कोई,
बुलन्द आवाज से नहीं, सिसकते हुये अंदाज से करे कोई,
माफ़ी मांग कर गुनाहों से तौबा करे कोई,
आइंदा अपनी आदत को सुधारने को कहे कोई,
बात बढ़ती है तो कुछ देर सिसकता है कोई,
फिर से वही गलती दोहरा कर मज़े ले कोई,
जाम का दौर हो, इश्क़ हो; महबूब हो,
फिर भला अपने आप को रोके कोई,
है भला शख्श वो अपने आप में,ए सबील,
उल्फ़तें साथ हो,फिर अपने आप को संभाले कोई।
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न्याय व्यवस्था,
वाह रे! न्याय व्यवस्था,
तू भी पक्षपात कर लेती है,
जब कभी घरों में दीवार पड़ता है,
जब कभी मानहानि होती है,
जब कभी क़त्लेआम हो जाता है,
जब कहीं दंगे भड़का दिये जाते हैं,
तमाम घर तबाह हो जाते हैं,
कितनों की लाश जली-कटी हुई मिलती है,
प्रशासन का काम भी महदूद होता है,
ऊपर से जो आदेश हो,बस वही होता है,
ये कोई फ़िल्म तो नहीं जो हीरो बदला लेगा,
अपनी मेहनत से पोल सबके खोलेगा,
सबको न्याय व्यवस्था के जंजीर से जकड़ देगा,
अपनी अदालत का फैसला भी खुद कर देगा,
ऐसा मुमकिन कहाँ है इस जहां में,
जब कभी गिद्ध मीडिया किसी घर को नोच-नोच कर तबाह करती है,
कैम्पेन और hastag चला कर,किसी को मुजरिम बनाती है,
तू आंखों पर पट्टी बांध खामोश रहती है।
तू चुप है मौन है, ये ठीक नहीं।
कितना बड़ा हमला है लोकतंत्र पर,आंखे खोल,
वाह रे! न्याय व्यवस्था।।
तू चुप है मौन है, ये ठीक नहीं।
ऐसा ना हुआ तो कोई न कोई बागी बन जायेगा,
प्रशासन अक्सर उसे मुठभेड़ में मार डालेगी,
देशद्रोही का तमगा भी सर उसके डालेगी,
उसके घर कुछ नक्शे, असलहों को दिखायेगी,
मीडिया आखिरकार उसे आतंकवादी बताएगी,
उसके लिंक फलां-फलां से था ये भी बतायेगी,
तू फिर से आंखों पर पट्टी बांध खामोश हो जायेगी,
फिर से एक नया दौर शुरू हो जायेगा,
लोग अपने-अपने कामों में मशगूल हो जायेंगे,
वाह रे! न्याय व्यवस्था।।
तू चुप है मौन है, ये ठीक नहीं।
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आवाम की आजादी
जुबां पे तालें लग गये,
किसी दर्जी से रफू करवा आये,
बोलने की आज़ादी को छीन लेना,
तमाशा हो जाये बाजार में,
बदन के कपड़े को फाड़ देना
गालियों का अंबार सज़ा देना,
इंसानियत का सरेबाज़ार नीलाम होना,
देख कर रूह भी जिसे कांप जाये,
ऐसे हालात को देखकर चुप रहना,
और एक ही अंदाज में लोगों का कहना,
हम क्या कर सकते हैं, हमें इससे क्या,
लोग जालिम हैं, हम हाथ डालेंगे तो कट जायेगा,
उनकी इस सोच और हैवानियत को देखकर,
पास बैठे एक फकीर ने कहा,
तुम सब मरोगे, जरूर मरोगे,
अगर बोलने वाला यहां पैदा न हो।
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राजा और गुलाम
मजदूर तो मजबूर है साहेब,
कोई खैर का पैगाम हो तो बता दें,
चिंता तनिक भी हो तो,ख्याल करले,
कई दिन और रात से,रोते हमारे बच्चे हैं,
किसे है शौक़,वतन छोड़कर कहीं और जाकर बस जाये,
मजबूरी पेट का ना होता तो ये पांव क्यों जाते।
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तू है लाजवाब तू है बावफ़ा
तेरे इश्क़ में पुरखुलूश है
तू तिश्नगी के पार चल
तू आबला को ठीक कर,
तू बना रकीब,बढ़ा हौसला,
या बन कोई ज़ाहिद,हो हासिल फ़ज़ीलत तुझे
तू तक्सीर को यूं मिटा भी दे,
या बन कोई सय्याद पाये उरूज़
(तिश्नगी-प्यास,आबला-छाले, रकीब-प्रतिद्वंद्वी, ज़ाहिद-तपस्वी,तक्सीर-अपराध)
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लाकडाउन में घर वापसी
तलाश घर थी कि घर जाएंगे,
लाश घर को गयी,या राह में रह गये।
किसी पन्ने में सिमटेगी कहानी बेबसी की,
मलाल रह गया कि, न सूरत देख पाये घर की।
बड़े मजे से कह देते हैं कुछ लोग कि क्या जरूरत थी पटरी पर सोने की,
और क्या जरूरत थी पैदल आने की,
जवाब; कितनों को दे साहेब कि क्या बीत रही थी हमपर,
पेट की आग,बच्चों की तड़प,अंसुवन भी सुख गये थे साहेब,
गुजारा परदेश में कितने दिन के लिए और करते,
काम था नहीं, सूखे कंकड़ियां कितने दिन उबलते साहेब,
चल दिये घर को बचते-बचाते,
आसान यही रास्ता नज़र आया,
पुलिस की डंडो का भी तो डर था,
सबकुछ बन्द है तो ट्रैन भी तो बन्द होगा,
शायद;यह रास्ता सीधा या आसान भी होगा,
कई ऐसे मसले है साहेब और क्या बताये,
आपकी सहूलियत जैसी है, आप वैसा सोचिये।
धूप और गर्मी के मौसम में मिलों चलना,
भूख,गरीबी से लड़ते-लड़ते सब जानबूझकर सो गये!
अगर तश्वीर देख,दिल नहीं पिघला तो संगदिल आप,
अपनी अंतरात्मा को जीते जी मार चुके हैं आप,
तन और मन से जो इंसान थक-सा गया हो,
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जहन की रुसवाई
आज उंगलियों को देर तक फिराता रहा,कई नम्बरों पर,
तुम्हारे अलावा, किसी और से बात करना नहीं चाहा।
लौट आओ न!फिर से शादाब कर लेंगे हम दोनों मिलकर,
जहन की रुसवाइयों ने बिजलियों की तरह शोर मचा
रखा है।
किसी और से बात करने पर, वो जहनी-सुकून नहीं मिलता,
कई बार नंबर डायल करना, और कट कर देना,
ये सोचने पर मजबूर कर देता है, कहीं किसी बात से खफा न हो जाओ,
इस कदर बेक़रार-सा हो गया हूं, जैसे समंदर की लहरों के किनारे पहुँचना,
और रेत के गोद में जा सिमटना,और अपनी फ़रियादें कह देना,
अभी शाम को नींद आ गयी थी, और तुम ख्वाब में मिले,
मासूम फ़रिश्ते के मानिंद मुस्कराहट बिखेर रहे थे,
कुछ देर बाद दरवाजे पर इब्न-ए-आदम ने दस्तक दी,नींद टूटा।
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बचपन के किस्से
ऐ ख़्वाब! आकर बचपन वाली नींद सुला दे,
ले चल हमें वहाँ,उस मकान,उस छत, उस घड़ी की बाहों में,
जहां लोरियों को सुनने और माँ की थपकियों से नींद आती थी,
रोने पर कितने पुराने किस्से सुनाती थी,
खुश थे, दुनियां की रिवायतों से दूर,एक मकान में,
जहां बारिश में, पानी से घर भर जाता था,
परेशां होकर भी, हमें खुश कर देते थे,
कागज के जहाज का दौर चलता था,
बारिश की बुलबुले से खुश हो जाते थे,
खो जाते थे, हम सब अपनी दुनिया में।
ऐ ख़्वाब! आकर बचपन वाली नींद सुला दे।
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कविता एक दोस्त के लिये
कैसी बंदिशे समाज ने बना डाला है,
वो पढ़ना चाहता है, लेकिन मजबूर क्यों...!
किस तरह से अपने जज्बातों को बयां करें,
जो सुनने वालें थे,जो अपने थे...पर ऐसा क्यों...
वो पढ़ना चाहता है, लेकिन मजबूर क्यों...!
उसके दिल पे क्या गुजर रही है...शायद,
कोई शायर ही बयां कर पाए,
वो टूट रहा है अंदर से...लाचार,बेबस-सा,
इल्तेजा कर रहा, घर वालों से...कोई उसकी भी सुन लें,
ऐसा नहीं कि माँ-बाप,गलत या सही होते हैं,
होते तो हम भी है, लेकिन कौन सही, कौन गलत,नहीं मालूम,
वो बस, कुछ और पल के, थोड़े-से, उम्मीद चाहता है,
वो पढ़ना चाहता है, लेकिन मजबूर क्यों...!
वो सबके खुशी के लिए...इतना मजबूर क्यों,
वो बस ,थोड़ी-सा,अपनों से,आशाएं चाहता है,
हम भूल क्यों जाते हैं, उसके भी सीने में एक दिल है,
जो सबके खुशियों के लिए,सुबह-शाम धड़कता है,
घर वालों ने वक़्त दिया था...लेकिन वो काफी न थे,
वो बस थोड़ा और वक़्त चाहता था... कुछ ख्वाब पूरा करने को,
वो पढ़ना चाहता है, लेकिन मजबूर क्यों...!
अगर अब भी न दे पाये साथ, घर वाले,
उम्र भर...दिल मे टिस सी बनकर रह जायेगी,
हां वो पढ़ना चाहता था,अपने पैरों पे खड़े होने के लिए।
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भाई-बहन
एक चंचल सा लड़का,एक चंचल सी लड़की,
गुजर गये जिस राह अद्ल से,
गुजरी साइकिल, किसी मोड़ से,
वो हँसते, ठिठोली करते जाते,
कई तमाशाबीन बीमार नजरों के शिकार हुए,
आँखों ने जो देखा, पूछ बैठा जहन से,
क्या ख़ूब सलामत है जोड़ी,
और न जाने क्या-क्या सोचा,
जहन जैसे कोई बीमार-सा हो,
कि एक चंचल -सा लड़का और एक चंचल सी लड़की,
दोस्त हैं या, कुछ और भी हैं,
क्या दोनों के कोई चक्कर भी हैं,
क्या साथ में वो रहते होंगे,
एक ही छत के नीचे सोते होंगे,
क्या वो भी,किसी बात पे लड़ते होंगे,
क्या एक मुस्कराहट पे मान जाते होंगे,
ऐसे कई सवाल ने हिचकोले पैदा किये,
पास जाकर मालूम किया,
क्या पाक-साफ था रिश्ता उनका,
भाई-बहन का प्यार था कुछ,
पढ़ने को जाते थे, वो हर रोज।
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किसी बात को लेकर सहम-सा गया है,
उलझनें बता रही थी,नुक्ता-ची का शिकार हुआ है,
एक अरसा बीता, ख़बर लेने की जहमत न की,
किस बात ने परेशान किया, वही कहा जो तूने दोहराया,
किल्क की तर्ज पर, ज़ख़्म-शुमारी करते।
मुझमें सँगलाजी न ढूढ,कदर-महव, खम गंदूम की तरह,
(नुक्ता-ची:अवगुण ढूढने वाला,किल्क:कलम,
तर्ज-प्रकार,ज़ख़्म-शुमारी:ज़ख्मों को गिनना, सँगलाजी:पथरीली, कदर-महव:खोए हुए, खम गंदुम:झुकी हुई गेहूं के बाल)
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तल्ख़ मिजाज तो नहीं था तेरा,
फिर आवाज में इतनी रुसवाई क्यों थी,
डर गए हो किसी बात को लेकर,
इक बात सुनो! इतना बुरा इंसान नहीं हूं
गलतियां हुई जानबूझकर या अनजाने से,
लेकर बैठोगे कितने दिन उदासी को,
अब तस्वीरें चेहरे तुझसे वाबस्ता करके देखते हैं।
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कई बातों का मलाल है दिल में,
अक़्ल की बात,अब मैं नहीं करता!
कहानियां ही सही सब मुबालगे ही सही
अगर वो ख्वाब है ताबीर करके देखते हैं।
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पराई महर के आंखों में,हर बार नहीं देखना,
वसवसे घेर लेंगे, शैतान हाज़िर हो जाएगा,
मोहब्बत ढूढने के फिराक में रहने लगोगे हर घड़ी,
बदगुमानी का एहसास, दिल पे छा जाएगी।
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बात कुछ गलत कह दिया हो,गर अपना समझो बता भी दो,
खामोश रहकर खुद को न जलाओ, वहम भी हो सकता है!
इस तरह की नादानियाँ से दिल में कई चिनगारियाँ, शोले भड़केंगे,
डर है; किसी की बात सुनकर खुद को न बदल डालो ।
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शहर का कुछ तीखा आवाज़, मेरे जहन में क्यों बसा है,
कई बातें हैं, जिसे कहने को लम्स परेशां किये बैठी हैं!!!
खुल जाओ किसी दिन ताश के पत्तों की तरह,
रात है हम हैं, कोई बहकने वाली बात तो करो!
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बात कुछ इस अंदाज में करता है...अब,
जैसे राह से गुजरे, कोई मुसाफिर या राहगीर!
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कुछ आईने,कुछ चेहरे,कुछ धुंधलापन,
साफ होना मतलब,फिर क्या दिखना,
इक ख्वाब में,झिलमिल तस्वीरों का दिखना,
सोचकर हर बात को कई रात-दिन का कटना।
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रोशनी या कलम की बात होती, तो मैं कुछ कहता,
बात दोनों की है बराबर चलो, अब सुलह से काम लेते हैं
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नफ़रत के बाजारों से निकलकर देख,
इल्म के सागर में कुछ देर,ठहर कर देख।
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वो भी अब दिल से दूर हुई
बचपन के कई किस्से हैं,इन आंखों में,
वो भी अब दिल से दूर हुई।
जाने वो कैसा ख्वाब था मेरा,
जो बहती धाराओं ने दिखलाई,
बचपन के कई किस्से हैं,इन आंखों में,
वो भी अब दिल से दूर हुई।
फुर्सत अब मिले,जब भी तुझको,
कुछ पन्ने हैं, कुछ स्याही हैं,
तुम याद करो,अपना बचपन,
तुम खुद से भी खेला करते थे,
गुड्डे को दूल्हा बनाते थे,
गुड़िया फिर दूल्हन बनती थी,
मिट्टी के प्यारे घरोंदे को,
दिल से तुम लगाया करते थे,
गर्मियों की वो प्यारी छूट्टी थी,
दिनभर तुम खेला करते थे,
अब बड़े हो गये अच्छा है,
तुम बचपन के दिन को न भूलो,
लड़ाइयां भी अक्सर कर लेते थे,
अगले दिन ही सुलह हो जाती थी,
बचपन के कई किस्से हैं,इन आंखों में,
वो भी अब दिल से दूर हुई।
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एक गांव की कहानी
एक गांव की सुनाता हूं तुम्हें कहानी,
वहाँ न कोई राजा था और ना ही रानी।
बड़े मजे से थे वहां के लोग,दिलों में मोहब्बत था उनके,
अदब-आदाब की रश्मों को निभाना आता था,
जब मिलते थे एक-दूजे से, तो गले भी मिलते थे,
साज-सामान उतने थे नहीं उस गांव में,
मुकम्मल था कोई नहीं एशो-आराम में,
गुरबत था, पर दिल के नेक थे,
मेहनकश थे, पर अपने दिलों पर राज करते थे।
एक गांव की सुनाता हूं तुम्हें कहानी,
वहाँ न कोई राजा था और ना ही रानी।
हर सदीं में कुछ ऐसे शैतान भी पैदा हुए,
मुसल्लत होकर कुछ वक्त राज किया,
कौम में नफरत को हथियार बनाया,
एक-दूसरे को फिर नीचा दिखाया,
नफ़रतों का अंबार इस कदर खड़ा किया,
बंट गए कौम टूट कर,रुसवा हुए,
नई अलामतों का नुमाइश आम हुआ,
बंट गए फिरके में, हौसला भी तमाम हुआ,
अब एक नए हौसलों से वो घर से निकले,
कत्ल,रुसवाई,बेहिजाबी, के साथ निकले,
दिलों में अंगार पाल कर निकले,
कत्ल खाने से जैसे कोई जानवर निकले।
एक गांव की सुनाता हूं तुम्हें कहानी,
वहाँ न कोई राजा था और ना ही रानी।
इल्म की समझ-ना-समझ का फिर एक दौर चला,
एक तरफ शैतान की कोशिश ने अंधेरा किया,
रहनुमा बन कर कुछ लोगों ने उजाला किया,
एक तरफ लोगों को उकसाया गया,
एक-दूसरे को फिर दुश्मन बताया गया,
नये-नये तरीकें फिर ईजाद हुए,
किसी की अस्मत,मोहब्बत को लूटा गया,
भूल बैठे, कमअक्ली में,मोहब्बत की बातें,
दूर हुए एक-दूजे से कुछ वक़्तों तक।
एक गांव की सुनाता हूं तुम्हें कहानी,
वहाँ न कोई राजा था और न ही रानी।
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एक पैगाम उसके नाम
मैं एक पैगाम उसके नाम अब कैसे लिखूं,
वो जो रातों तक जागकर बातें करता था!
मैं उसको सुनता था देर तक और वो मुझे सुनती थी,
न कोई ख़लिश थी हम दोनों के बीच,
न कोई अड़चनें, हम दोनों के बीच...,
मैं एक पैगाम उसके नाम अब कैसे लिखूं,
वो जो रातों तक जागकर बातें करता था!
एक msg के न आने से कितने परेशान सा हो जाना,
कभी call करें और मोबाइल का स्वीच ऑफ हो जाना,
आलम ये कि बदन के हर पुर्जे का परेशान सा हो जाना,
बेचैनी का बेहिसाब...सा यूं बढ़ जाना,
बहुत मुश्किल से खुद को फिर सम्भलना...,
मैं एक पैगाम उसके नाम अब कैसे लिखूं,
वो जो रातों तक जागकर बातें करता था!
एक अच्छी आदत तो उसमें अब भी है,
msg करके हाल पूछना और कहना...आप कैसे हैं,
थोड़ी-सी चेहरे पे मासूमियत फिर से बन जाती है मेरे,
पढ़ लेता हूँ, जख्म को फिर तरो-ताजा करता हूं,
मैं चाहता हूं कि फिर वो लौट आये,
मुझको जोड़कर फिर से एक बार और तोड़ जाये,
ऐ खुदा! मुझमें ये कैसी आदत बन गयी है,
मैं बिखरुं तो उसकी खुशी के लिए...,
मैं एक पैगाम उसके नाम कैसे अब लिखूं,
वो जो रातों तक जागकर बातें करता था!
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ऐ खामोश पल सच में तू चली जायेगी,
सच बोलूं ! फिर मैं, कैसे जी पाऊंगा!!!
मेरा महबूब ने आज शाम मेरा हाल पूछा,
उसके पूछने का अंदाज मुझे अच्छा लगा!
खैरियत पूछ कर हाल अपना कह दिया,
खाना खाया आपने ,फिर से वो बात दोहरा दिया!
ऐ शाम! तुझे आगोश में लेने को जी चाहता है,
मेरा महबूब आया था, कुछ देर के लिए!!!
अब कोई शिकवा नहीं है मुझे उससे,
वो बस खुश रहे, याद कभी-कभी करता रहे!
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आह मासूमों की
सुनो! आह क्यों लेते हो मासूमों की,
किस बात पे इतना इतराना।
हो एक इंसान, क्या भूल गए,
जिस जगह पे, हो आज तुम,
क्या उसका गौरव भी भूल गए,
सोचों किसी दिन ज़िंदगी
लाकर पटके, फिर उनके बीच,
फिर किसकी दोगे दुहाई तुम,
फिर कौन तुम्हारा हित सोचे,
सुनो! आह क्यों लेते हो मासूमों की,
किस बात पे इतना इतराते हो।।
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कभी लिखते हैं
कभी-कभी जज्बात जाग उठते हैं तो लिखते हैं।
कोई बिछड़ा हुआ याद आता है तो फिर लिखते हैं,
जिंदगी का एक अहम् हिस्सा जब याद आता है,
जब उम्मीद से ना उम्मीदी हाथ लगती है,
जब अपने ही बनाए हुए शेडूल को न फॉलो करें,
तड़प उठता है यह मन अंदर से,फिर लहर उठती है,
कलम रोशनाई में डूबती है, फिर लिखते हैं।
कभी-कभी जज्बात जाग उठते हैं तो लिखते हैं।
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मैं मजबूर क्यों हो गया हूँ, दिल की हाथों,
जबकि समझ है मुझे,अच्छे-बुरे का बहुत अच्छे से,
कोई किसी से इतना, मोहब्बत कैसे कर सकता है,
जबकि वो किसी और का पहले से, हमसाया है,
मैं मुसाफिर बनकर इस राह पर,क्यों चला आया,
जबकि पता था, कुछ टूटेगा तो, आवाज तक न होगी,
खुश था तेरे साथ,अब तक,अपनी दुनिया में,
फिर एक दिन तेरा यूँ कहना,की वो आने वाले हैं,
ये बात सुनकर,दिल को न जाने क्या-क्या गुमान होने लगा,
जैसे कुछ छूट रहा हो,कोई मंजिल से दूर जा रहा हो,
मैं फिर से,मुसाफिरों की बस्ती में, सुमार होने लगा,
फिर से हर चीजें, क्यों मरहम की जगह,जख्म देने लगी,
अब हालात ऐसी भी नहीं, कि मजनूं बन कर यूं फिरू बाज़ारों में,
सम्भलना आता है, लेकिन एक दर्द-सा दिल में क्यों बनता जा रहा,
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