Biology Assignment notes | phd scholar | cell notes | research notes

 

सेल

सेल शब्द की उत्पत्ति लैटिन शब्द से हुई है जिसका अर्थ Small Room (छोटा कमरा) सर्वप्रथम रॉबर्ट हुक ने 1665 में सेल कोशिका की खोज की।

·       कोशिका(Cell) सजीवों के शरीर की रचनात्मक और क्रियात्मक इकाई है और प्रायः जनन की सामर्थ्य रखती है।

·       Cell Theory के अनुसार सभी सजीव प्राणी एक या एक से अधिक सेल कोशिकाओं से बनी होती हैं और इस वजह से कोशिकाओं को जीवन के Building Block के रूप में जाना जाता है।

·       सजीवों की सभी जैविक (Biological Activities) क्रियाएं Cell के अंदर होती है।

·       Cell के अंदर ही आवश्यक अनुवांशिक सूचनाएं होती है जिनसे कोशिका के कार्यों का विवरण बताएं सूचनाएं अगली पीढ़ी की कोशिकाओं में स्थानांतरित होती है।

·       जिस प्रकार किसी भवन का निर्माण एक-एक ईंट के जुड़ने से होता है,ठीक उसी प्रकार जीव धारियों के शरीर का निर्माण छोटी-छोटी कोशिकाओं से मिलकर होता है। इसी कारण कोशिका को जीवन आर्यों के शरीर की संरचनात्मक इकाई कही जाती है।

 

परिभाषा - कोशिका की संरचनात्मक और क्रियात्मक इकाई है।

Cell is the structural and Functional unit of life.

 

Structure and function of Cell

जैसा की पहली जी हम जान चुके हैं कि कोशिका जीवन की आधारभूत इकाई है प्रत्येक सजीव के जीवन का आरंभ एक अकेली  कोशिका से होता है। कोशिका अंतिम छोटी होती है जिसे नगमे आंखों से नहीं देखा जा सकता कई सब्जियों का शरीर एक अकेली कोशिका का बना होता है उन्हें एक कोशिकीय (unicellular) जीव कहते हैं जैसे अमीबा पैरामीशियम युगलीन  आदि।

अधिकांश जिलों का शरीर असंख्य कोशिकाओं से मिलकर बना होता है बहुकोशिकीय जीव कहते हैं

 

क्या आप जानते हैं:

·       मानव सबसे छोटी कोशिका शुक्राणु

·       मानव में सबसे बड़ी कोशिका अंडाणु

·       मानव में कोशिका विभाजन नहीं होता है। न्यूरॉन

 

मानव शरीर को जीवित रखने के लिए विभिन्न प्रकार के Cells भिन्न-भिन्न कार्य करते हैं। जैसे RBC (Red Blood Cells) का कार्य Oxygen Carry  करना है। और Nerve Cells का कार्य संदेश को Brain तक ले जाना और ले आना होता है। इस प्रकार के Cells को Special सेल कहते हैं।

 

Shape and Size of Cell:

कोशिकाओं की एक विशेषता यह भी है की उसकी आकृति एवं आकार एक समान नहीं होता है। जैसी अमीबा और अनियमित आकृति का जीव है। जबकि पैरामीशियम अंडाकार (चप्पल) जैसी होती है।

कोशिकाओं के Shape और Size उनसे जुड़े आवश्यकता और कार्यों पर भी निर्भर करते हैं। जैसे Long और Thin muscle cells contract संकु और expand आसानी से हो जाते हैं। जिससे उनका कार्य सही और जरन ढंग से पादित होता है।

 

क्या आप जानते हैं - सबसे बड़ी cell शुतुरमुर्ग नामक पक्षी का अंडा होता है। दुनिया में सबसे छोटी कोशिका micoplasm नामक जीव की होती है। सबसे लंबी कोशिका तंत्रिका कोशिका होती है जो 1 मीटर लम्बी होती है। Skin की outer layer एक सुरक्षातमक कवच के रूप में कार्य करती है। Cells flat shape ही  इन्हें एक बड़े Area में cover में मददगार बनाता है।

 

Figure of different shape and size of Cells:

(A) Flat Cell

(B)Cuboidal

(C) Columnar

 

कोशिका की संरचना को विस्तार पूर्वक जाने के लिए cell के विभिन्न पार्ट्स और उसके Function के बारे में अध्ययन करना आवश्यक है।

 

Parts of Cell प्रमुख कोशिकांग:

Protoplasm(जीव द्रव्य)- किसी भी कोशिका की cell wall (कोशिका भित्ति) को छोड़कर शेष संपूर्ण भाग जीव द्रव्य है या जीवन का भौतिक आधार है।

 

1. Cell Membrane (कोशिका झिल्ली):

प्रत्येक कोशिका के चारों ओर पाई जाने वाली यह एक पतली झिल्ली है, जो कोशिका को स्थिर रखती है।

 

Cell Membrane  के प्रमुख कार्य:

·       यह कोशिका की आकार को बनाए रखती है।

·       यह जीव द्रव्य की सुरक्षा करती है।

·       यह cell के inner content को बाहरी वातावरण से अलग (Seprate) करती है।

·       यह कोशिका के अंदर-बाहर के पदार्थों के आदान-प्रदान को नियंत्रित करती है।

·       यह विभिन्न रचनाओं के निर्माण में भी सहायता करती हैं।

·       यह झिल्ली एक Communicator का कार्य करती है। जिसमें Chemical message (रसायनिक संदेशो) को Pans on  करती है।

·       कुछ कोशिकावन हानिकारक बाह्य Protein  को शरीर के लिए हानिरहित प्रोटीन में परिवर्तित करके Immunity को बनाये रखते हैं।

 

Cytoplasm (कोशिका द्रव्य) : संरचना कोशिका झिल्ली के अंदर Nuclear को छोड़कर रवेदार, जैलीनुमा, अर्धतरल पदार्थ को Cytoplasm कहते हैं।

·       यह पारर्दर्शी एवं  चिपचिपा होता है।

·       यह कोशिका के 7% भाग की रचना करता है।

 

CYTOPLASM की COMPOSITION दो प्रकार की पदार्थों से मिलकर बनी है।

 

1. कार्बनिक :  इस प्रकार में Oxygen, Hydrogen, Carbon, Nitrogen, Sodium, Potassium इत्यादि तत्व पाए जाए हैं। इनका अंश 3% to 4% का होता है।

 

2. अकार्बनिक: इस प्रकार के बनावट में Protoplasm में Carbohydrates , Fat, Protein, Water इत्यादि यौगिकों द्वारा मिलकर बनाते हैं। ये सभी पोषक तत्व हमारे भोजन द्वारा हो लिये जाते हैं।

 

अंतर द्रव्य जालिका (Endoplasmic Reficulum) - इसे कोशिका का कंकाल तंत्र भी कहा जाता है। endoplasm का अर्थ है, 'जीवद्रव्य' में और Reficulam का अर्थ है। ' एक प्रकार का जाल या जालिका '

इसकी खोज तथा नामकरण पोर्टर के द्वारा की गई थी। यह परिपक्व(Mature) को RBC को छोड़कर सभी यूकेरियोटिक सेल में पाया जाता है।

 

Function of Endoplasmic Reficulum

·       यह तैयार Protein को Cell के अन्य भागों में भेजता है।

·       यह Fat और Lipid अणुओं (atoms) को बनाने ( Synthesis) में सहायता करती है।

·       यह सेल के विभिन्न क्षेत्र तथा न्यूक्लियस के मध्य एक परिवहन माध्यम का कार्य करते हैं।

·       यह कुछ Biochemical Activity के लिए कोशका द्रव्यी ढाचे Stored Energing  का Chemical form (रासायनिक स्वरुप) ATP है।


 

सूत्रकणिका (Mitochondria) :- 

संरचना

Mitochondria शब्द ग्रीक भाषा के दो शब्दों Mitos यानि धागा (Thread) तथा Chandrion यानि कण (Granule) से बना है। इस लिए इसे सूत्रकणिका भी कहते हैं। 

  • Kolliker ने पहली बार इसे कीटों की रेखित मांसपेशियों (straited muscles) में देखा।
  • सामान्यतः एक सेल में इसकी संख्या 500-5000 तक हो सकती है।
  • इनकी औसत लंबाई 5 से 8 माइक्रोन और व्यास 0.5 से 1 माइक्रोन होती है।
  • इनकी बाहरी परत smooth और अंदर की membrane कई folds में होती है। इन्हीं folds में ही ज्यादातर enzymes होते हैं जो food energy को ऊर्जा के दूसरे रूप में परिवर्तित होने के बाद उपयोग में लाए जाते है। 

 

कार्य (Function) -

Mitochondria का मुख्य कार्य cellular perspiration (कोशिकीय श्वसन) करना है। इस प्रक्रिया से ऊर्जा की उत्पत्ति होती है जो ATP के रूप में संचित रहती है और विभिन्न बायोलॉजिकल एक्टिविटीज (जैविक क्रियाओं) के जैसे वृद्धि विभाजन और अन्य क्रियाओं के लिए यही एटीपी आवश्यकतानुसार ईडीपी मॉलिक्यूल और एनर्जी में टूट जाती है। इसी वजह से माइटोकांड्रिया को एनर्जी का पावर हाउस (शक्ति गृह ) कहा जाता है ।

  • शरीर की आवश्यकता अनुसार जिस भाग में ऊर्जा की ज्यादा जरूरत होती, वहां अधिक मात्रा में माइटोकांड्रिया पाए जाते हैं।
  • माइटोकांड्रिया की एक खासियत रिया है कि यह सिर्फ माता से ही विरासत में मिलते हैं पिता से कभी नहीं।
  • जहां एटीपी की आवश्यकता होती है माइट्रोकांड्रिया ही transfer करता है I
  • इसमें एंजाइम का भंडार होता है।
  • इसे कोशिका का ऊर्जा ग्रह भी कहते हैं।

 

 

गोल्गी उपकरण (Golgi Apparatus) :-

·       Cells के cytoplasm (कोशिका द्रव्य) में nucleus (केंद्रक) के समीप कुछ थैली नुमा कोशिकांग पाए जाते हैं इन्हें गोल्गी बॉडीज कहते हैं।

·       इसको पहली बार कैमियो गाल जी ने देखा प्रोग्राम इसलिए इस संरचना को गोल्जी काय का नाम दिया गया ।

 

इसकी संरचना में निम्न घटक दिखाई देते हैं -

1.      सिस्टर नेम (Cisternae)

2.      नलिकाएं (Tubules)

3.      पुत्तिकाएं (Verictes)


Figure of Golgi Appratus from Iutenet function of Golgi Apparatus

  • इसमें एंजाइम की उपस्थिति कंसंट्रेशन फॉर्म में रहती है जिसकी जरूरत पाचन में होती है।
  • यहां लाइसोसोम का निर्माण करता है
  • यह प्रोटीन की छटाई करके अपने गंतव्य स्थानों जैसे लाइसोसोम प्लाज्मा मेंब्रेन तक भेजता है।
  • यह कोशिका के चारों और लिपिड के परिवहन में शामिल रहता है ।

 

लयनकाय (Lysosome)-

  • सेल्स के साइटोप्लाज्म में पाए जाने वाले आवरण युक्त गोल गोल थैलीनुमा अंगाणुओं को लाइसोसोम कहते हैं।
  • इसकी खोज क्रिस्चियन डी दुबे ने 1955 में की थी।
  • जब सेल्स में मेटाबोलिक एक्टिविटीज ( चयापचयी )  क्रियाएं होती है तो उन क्रियाओं के संकुचन से लाइसोसोम फट जाते हैं तथा उनके अंदर के एंजाइम बाहर आ जाते हैं। ये इंजाइम पाचन क्रिया के लिए बहुत जरूरी होते हैं और पाचन क्रिया में मदद करते हैं।
  • लाइसोसोम के फटने के कारण इसे आत्मघाती थैली (suiscidal bag) के नाम से भी जाना जाता है ।

Functions of Lysosome :-

  • इसका मुख्य कार्य पाचन करना होता है। (अंतः एवं वाह्य पाचन में सहायक)
  • मृत कोशिकाओं का निष्कासन करना यानी अंतः कोशिकाओं का अपमार्जन करते हैं।
  • कोशिका विभाजन में भी सहायक होते हैं यानी जब लाइसोसोम कोशिकाओं में भरते हैं तब कोशिका विभाजन शुरू होता है।

 

तारककाय (Cetrosome) :-

  • यह सेल के केंद्र भाग में न्यूक्लियस के निकट साइटोप्लाज्म में पाई जाती है।
  • यहां खोखली सोच में बेलन आकार आकार की होती है।
  • यह मुख्य रूप से जंतु कोशिका में केंद्र के निकट तारे समान आकृति में पाई जाती है।
  • सैंटरोसोम में दो सूक्ष्म रचनाएं उसे centrioles (तारक केंद्र) कहते हैं । इसकी खोज 1987 ई. में वॉन ब्रेन्डेन (Van Branden) ने की। 1988 में T. Boveri ने सेंट्रियोल्स का नाम दिया ।
  • सेंट्रियोल्स सूक्ष्म नलिकाओं से रचित होती हैं। यह सूक्ष्म नलिकाएं ट्यूबलीन नामक प्रोटीन से बनी होती हैं ।

 

तारककाय के कार्य

  • तारककाय और तारक केंद्र कोशिका विभाजन में महत्वपूर्ण योगदान करते हैं।
  • तारक केंद्र सेल्स के सूक्ष्म सूक्ष्म नलिकाओं के संगठन में सहायक होते हैं।
  • हिया शुक्राणु के पूछ का निर्माण करने में सहायक होते हैं ।

 

राइबोसोम (Ribosomes):-

  • यह एक झिल्ली विहीन कोशिकांग है जो सूचना गोलाकार आकार का होता है ।
  • यह अंतर्द्रव्यी जालिका (endoplasmic peticuler) से जुड़ा रहता है । 
  • यहां सबसे छोटा कोशिकांग (organelle) है।
  • यह Riboprotein तथा mRNA के बने होते हैं ।
  • यह Cytoplasm, mitochondria, nucleus, endoplasmic reticulum तथा हरिलवक में पाए जाते हैं।
  • इसकी खोज 1980 के दशक में George Amil ballade नामक वैज्ञानिक ने की । 

 

राइबोसोम के कार्य :-

यह प्रोटीन संश्लेषण में भाग लेता है इसलिए इसे प्रोटीन फैक्ट्री के रूप में जाना जाता है। इसको कोशिका का प्रोटीन कारखाना भी कहा जाता है।

 

राजधानी (Vacuoles) 

  • यह शब्द लैटिन के वैकस (vacus) से आया है जिसका अर्थ है रिक्ति। देखने में यह खाली जेब की तरह लगता है प्रोग्राम इनका आकार फैलिन हुआ होता है। इसमें विभिन्न प्रकार की झिल्लीनुमा थैली होती है जो फास्फोलिपिड से बने होते हैं। यह खाली नहीं होते हैं इसमें रसायन और एंजाइम भरे होते हैं।
  • यह मुख्य रूप से पौधों और कवक की सेल्स में पाए जाते हैं। हालांकि, कुछ जानवरों, बैक्टीरिया और प्रोटिस्ट सेल्स में भी वैक्यूल्स होती है ।

 

रिक्तिकाओं (Vacuoles) के कार्य :-

  • रिक्तिकाएं पदार्थों का भंडारण करती है जैसे fat, lipid आदि।
  • यह सेल के अंदर पीएच का संतुलन बनाए रखती है।
  • यह सेल की आसमानी गुणों को विनियमित करती है।
  • इसके द्वारा विवरण एवं सुरक्षा का कार्य भी किया जाता है।
  • कोशिका के अंदर दबाव बनाए रखने में सहायक।
  • इनके द्वारा जल का अवशोषण किया जाता है।
  • इनके द्वारा विषाक्त पदार्थों को हटाए जाने का कार्य भी किया जाता है।

 

 

 

कोशिका विभाजन (Cell division) :-

  • जिस जैविक प्रक्रिया द्वारा एक कोशिका विभाजित होकर दो और यह दो कोशिकाएं चार कोशिकाओं को बनाने के लिए विभाजित होती हैं इसी प्रक्रिया को कोशिका विभाजन कहते हैं या कोशिका प्रजनन।
  • कभी-कभी आप गलती से अपने होंठ रचा या अन्य स्थान पर काट लेते हैं लेकिन कुछ दिनों में ही खाओ ठीक हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है कि हमारे शरीर में हर दिन, हर घंटे, हर सेकंड कोशिकाओं का विभाजन चल रहा है जिसके कारण नहीं कोशिकाएं बनती हैं।
  • मानव शरीर में कोशिकाओं प्रत्येक दिन लगभग 2 ट्रिलियन बार विभाजित होती हैं।
  • कुछ कोशिकाएं जीवन पर्यंत विभाजित होती रहती हैं। मानव शरीर में प्रति सेकंड 30 हजार कोशिकाएं मृत होती हैं और उन्हें नई कोशिकाओं द्वारा प्रतिस्थापित किया जाता है। मस्तिष्क की कोशिकाओं के मृत होने पर पुनर्निर्माण नहीं हो पाता इसलिए नर्वस सिस्टम की कोशिकाएं ही नहीं नहीं बन पाती हैं।
  • कोशिका विभाजन वस्तुतः कोशिका चक्र का एक चरण है। विभाजित होने वाली मृत कोशिकाओं एवं विभाजन के फल स्वरुप बनने वाली कोशिकाएं पुत्री कोशिका कहलाती है।

 

कोशिका विभाजन मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं:-

1.      समसूत्री कोशिका विभाजन (Mitosis) [समसूत्र‌‌ण ]

2.      अर्धसूत्री कोशिका विभाजन (Meosis) [अर्ध सूत्रण ]

 

1.      समसूत्री कोशिका विभाजन (Mitosis):

यह एक साधारण कोशिका विभाजन है। इसकी संपूर्ण प्रक्रिया दो चरणों में पूरी होती है।

     प्रथम चरण में कोशिका के केंद्रक का विभाजन होता है। इस प्रक्रिया को केंद्र विभाजन (केरियो काइनोसिस) कहते हैं। विभाजन के द्वितीय चरण में कोशिका द्रव्य (cytoplasm) का विभाजन होता है। इस प्रक्रिया को साइटोप्लाज्म डिवीजन (कोशिका द्रव्य विभाजन) कहते हैं। विभाजन के अंत में मातृ कोशिका (mother cell), पुत्री कोशिका (Daughter cell) में बदल जाती है। सर्वप्रथम इस विभाजन का वर्णन वाटर फ्लेमिंग ने सन 1879 में किया।

 

2.      अर्धसूत्री कोशिका विभाजन (Meosis) :

     अर्धसूत्री कोशिका विभाजन में माता-पिता के कोशिका में गुणसूत्रों की संख्या आधा हो जाती है और 4 युग्मन कोशिकाओं का निर्माण होता है। इस प्रकार का कोशिका विभाजन यूकैरियोटिक प्राणियों में लैंगिक जनन के लिए आवश्यक है। इस विभाजन का नाम 'मियोसिस' 1905 में फार्मर तथा मोरे ने रखा। अर्धसूत्री विभाजन सिर्फ जनन कोशिका में होता है।

 

Tissues in human body and the central arrangement of the body:-

  • किसी जीव के शरीर में कोशिकाओं के समूह को उत्तक कहते हैं। इनकी उत्पत्ति एक समान होती है तथा वे एक विशेष कार्य करती है। 
  • अधिकांशत उत्तकों का आकार एवं आकृति एक समान होती है। परंतु कभी-कभी कुछ उत्तकों के आकार एवं आकृति में असमानता पाई जाती है किंतु उनकी उत्पत्ति एवं कार्य एक समान ही होते हैं।
  • उत्तक के अध्ययन को उत्तक विज्ञान (Histology) कहते हैं। उत्तक शब्द फ्रांसीसी भाषा के शब्द टिशू (tissue) से निकला है जिसका अर्थ होता है संरचना या बनावट। 
  • बहुकोशिकीय प्राणियों के शरीर में पाचन, श्वसन तथा जन्म क्रियाएं भिन्न-भिन्न उत्तकों द्वारा व्यवस्थित रुप से संपन्न की जाती हैं। मानव का शरीर अरबों कोशिकाओं से बना हुआ है जो विभिन्न कार्य संपन्न करता है।
  • इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम फ्रांसीसी वैज्ञानिक Bichat ने 18वीं शताब्दी के अंत में शरीर रचना विज्ञान के प्रसंग में किया था। 

 

ऊतक के प्रकार

1.      उपकला ऊतक (Epithilial Tissue)

2.      संयोजी ऊतक (Connective Tissue)

3.      पेशी ऊतक (Muscular Tissue)

4.      तंत्रिका ऊतक (Nervous Tissue)

5.      जनन ऊतक (Reproductive Tissue)

 

उपकला ऊतक (Epithelial Tissue)

  • उपकला ऊतक शरीर का एक विशिष्ट ऊतक है जो अंगों को अच्छादित करके उनकी रक्षा करता है। इसके अच्छा रहने से जीवाणु भीतर प्रवेश नहीं कर पाते। 
  • उपकला ऊतक समस्त पाचन प्रणाली मुख से लेकर मलद्वार तक को अच्छादित किए हुए हैं। 
  • शरीर की जितनी भी प्रणालियां या नलिका आए हैं जैसे स्वास नाल तथा रक्त वाहिनी वाहिनी आदि सभी उपकला ऊतक से आच्छादित हैं। 
  • यह एक अत्यंत महीन और चिकनी चिल्ली है जो शरीर के भीतरी समस्त अंगों के बाह्य पृष्ठों को आच्छादित किए हुए हैं। इसकी कोशिकाएं एक दूसरे के अत्यंत निकट रहते हैं। 
  • इन ऊतकों का मुख्य कार्य रक्षण, पोषण एवं स्राव करना है।

 

उपकला ऊतकों के निम्न प्रकार हैं -

1.      शल्की उपकला ऊतक (Sovuanmous) - यह बहुत पतली चपटी और एक ही परत का होता है। इनकी कोशिका ‌ षट्कोणी होती है। हमारी सारी चमड़ी इसी प्रकार की उत्तक से ढका हुआ है। यह हमारे नाक और ग्रास नली में पाया जाता है स्किन में भी पाया जाता है।

2.      स्तंभाकार उपकला ऊतक (Columnar Ep. Tissues) - इनकी कोशिका कोषाणु स्तंभ के समान होते हैं। आमाशय तथा आंत में इस प्रकार के ऊतक पाए जाते हैं। इसका मुख्य कार्य अवशोषण (आंतों तथा आमाशय में) और स्राव (म्यूकस) में करना है।

3.      गंधि उपकला ऊतक (Glandular Ep. Tissues) - यह स्तंभाकार उपकला ऊतक का ही एक रूप है जो कि भित्तियों में रक्तग्रन्थियों में रूपांतरित हो जाता है।

4.      सरल घनाकार संवेदनिक उपकला ऊतक (Cuboidal Tissues) - इसकी कोशिकाएं घनाकार होती हैं। यह ऊतक श्वास नलिका ओं मूत्र जनन नलिका ओं जन ग्रंथियों आदि में पाया जाता है। यह उत्तर एक स्तरीय घन जैसी कोशिकाओं से बना होता है। इनका मुख्य कार्य श्रवण और अवशोषण है।

5.      पक्ष्माभी या रोमिकामय उपकला ऊतक (Cilliated Tissues) - इनकी कोशिकाएं स्तंभाकार एवं घनाकार होती हैं इनकी बाहरी स्तरों पर पक्ष्म या सीलिया होते हैं। यह मुख्यतः श्वासनाल, अण्ड वाहिनी, गर्भाशय आदि में पाई जाती हैं। इनका कार्य कणों तथा श्लेष्मा को उपकला की सतह पर एक निश्चित दिशा में ले जाना है।

 

Types of Muscle in the body and their differences :-

            मनुष्य के शरीर का अधिकांश बाह्य व आंतरिक भाग मांसपेशियों से ढका रहता है। शरीर का ऊपरी हिस्सा पूर्णरूपेण मांसाच्छादित होने के कारण ही शरीर सुन्दर तथा सुडौल दिखाई देता है। इन पेशियों में संकुचन का विशेष गुण पाया जाता है। इस संकुचन के गुण के कारण ही हम अपने शारीरिक अंगों को विभिन्न दिशाओं में घुमा सकते हैं। जैसे- मुँह का खोलना एवं बंद करना, हृदय का धड़कना, आंखों का सिकुड़ना और फैलना आदि इन्हीं के कारण संभव है।

 

2. संयोजी ऊतक (Connective Tissues) - 

  • संयोजी ऊतक रेशेदार ऊतक होते हैं। प्राणियों के संयोजी ऊतकों का मुख्य घटक कोलेजन नामक प्रोटीन होता है। संयोजी ऊतक मानव शरीर में एक अंग को दूसरे अंग को जोड़ने का कार्य करता है।
  • यह प्रत्येक अंग में पाया जाता है। यह ऊतकों का एक विस्तृत समूह है।
  • संयोजी ऊतकों का विशिष्ट कार्य संयोजन करना, अंगों को आच्छादित करना तथा उन्हें सहीं स्थान पर बनाये रखना है।
  • इन ऊतकों की कोशिकाएं अलग-अलग आकार और रूप-रंग की होती हैं। यद्यपि सबसे संयोजी कार्य में समानता होती है।
  • संयोजी ऊतक शरीर को एक ढांचा प्रदान करते हैं। इनकी कोशिकाएं उपकला कोशिकाओं की भाँति बहुत अधिक चिपकी हुई नहीं होतीं बल्कि एक दूसरे से काफी अलग-अलग रहती हैं। इनके बीच के स्थान में अन्तर्कोशिकीय पदार्थ भरा रहता है जिसे मैट्रिक्स कहते हैं। यह पदार्थ रेशेदार दिखाई देता है।

 

संयोजी ऊतक कई प्रकार के होते हैं जैसे -

1.      अवकाशी ऊतक

2.      वसीय ऊतक

3.      अस्ति ऊतक

4.      लसिकाभ ऊतक

5.      जालीदार ऊतक

6.      पीत प्रत्यास्थ ऊतक

7.      श्लेष्लाभ ऊतक

8.      उपास्थि ऊतक

9.      रक्त उत्पादक ऊतक

10.  श्वेत तंतुमय ऊतक

 

नोट - शरीर का सबसे तरल संयोजी ऊतक रक्त होता है और कठोर संयोजी ऊतक अस्थि है।

 

पेशी ऊतक (Muscular Tissues) :- 

  • पेशी ऊतक वो ऊतक हैं जिनसे जंतुओं के शरीर की पेशियां निर्मित होती हैं। यह कोमल होते हैं और इनके कारण पेशियों में संकुचन संभव होता है। पेशी ऊतक लंबी कोशिकाओं से बने होते हैं जिन्हें पेशी तंतु कहते हैं। पेशी ऊतकों के कारण ही हमारे शरीर में गति संभव हो पाती है। पेशियों में विशेष प्रकार की प्रोटीन होती है जिसे संकुचन सेल प्रोटीन कहते हैं। इसी प्रोटीन के संकुचन और सीलन से गति उत्पन्न होती है। 

 

 

 

क्या आप जानते हैं?

मनुष्य के शरीर का 40% भाग पेशियों का होता है। मानव शरीर में लगभग 639 मांसपेशियां पाई जाती हैं। शरीर में सर्वाधिक 180 पेशियां पीठ में पाई जाती हैं।

 

तंत्रिका ऊतक (Nervous Tissues) :- 

  • किसी जीव के शरीर में तंत्रिका ऐसे रेशे को कहते हैं जिसके द्वारा शरीर में संदेशों का एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजा जाता है। 
  • मनुष्य के शरीर में तंत्रिकाएं शरीर के लगभग हर भाग को मस्तिष्क से जोड़कर उनमें आपसी संपर्क बनाए रखती हैं।
  • हमारे शरीर की तंत्रिकाएं न्यूरान नामक कोशिकाओं के गुच्छों की बनी हैं। इन तंत्रिकाओं की एक विशेष सुव्यवस्थित रचना होती है जिससे संदेशों को आदान-प्रदान करने की अद्भुत क्षमता होती है।

 

पेशियां तीन प्रकार की होती हैं:-

1.      ऐच्छिक/रेखांकित पेशियां (Voluntary/Skeletal Muscles) :-

यह मांस पेशियां मनुष्य की इच्छा अनुसार कार्य करती हैं। पेशियों का प्रयोग करना या ना करना मनुष्य की इच्छा पर निर्भर करता है। यह पेशियां अस्थियों पर लगी रहती हैं। शरीर की गति जैसे चलना, दौड़ना, कूदना, फेंकना आदि इन्हीं पेशियों के आकुंचन और प्रसार का फल है। इन मांस पेशियों को पराधीन मांस पेशी भी कहते हैं।

2.      अनैच्छिक/अरेखांकित पेशियां (Involuntary/Smooth muscles) :-

इन मांस पेशियों को मनुष्य अपनी इच्छा अनुसार नहीं चला सकते हैं। यह मांसपेशियां स्वतंत्र रूप से अपना कार्य करती हैं। इन मांस पेशियों को स्वाधीन मांस पेशी भी कहते हैं। अनैच्छिक मांस पेशियांअपना कार्य निरंतर दिन-रात करती ही रहती हैं। जैसे आमाशय की पेशी, श्वसन की पेशी, आंतों की पेशी, अन्न नली आदि की मांसपेशियां स्वत: ही अपना कार्य निरंतर करती रहती हैं।

3.      हृदय की पेशी (Cardia Muscles) :-

ह्रदय की पेशियों की संरचना एक्सपेसी के समान होती है परंतु वह इच्छा के अनुरूप कार्य नहीं करती स्वता ही संकुचन और प्रसार करती रहती हैं। वास्तव में यह सिद्ध हो चुका है कि हृदय की पेशी में स्वता कुंजन करने की क्षमता होती है जो नाली के नियंत्रण से बिल्कुल ही स्वतंत्र है और दिल के धड़कन को लगातार गतिमान करने का कार्य करती है। 

नोट- शरीर की सबसे मजबूत पेशी मेैसेटर (Maseter muscles) है जो जबड़े के पिछले हिस्से में मौजूद रहती है।

 

The arrangement of the skeleton function, ribs and vertebral column and the extremities (मानव कंकाल) :-

मानव कंकाल शरीर की आंतरिक संरचना होती है। कंकाल तंत्र मानव शरीर को सख्त संरचना या रूपरेखा प्रदान करता है जो शरीर की रक्षा करता है। जन्म के समय नवजात शिशु में 270 हड्डियां होती हैं, बाल्यावस्था में हड्डियों की संख्या 350 हो जाती है और किशोरावस्था व प्रौढ़ावस्था में कुछ हड्डियों के संगठित होने के कारण 206 तक सीमित हो जाती है।

कंकाल तंत्रिका में हड्डियों का द्रव्यमान 30 वर्ष की आयु के लगभग अपने अधिकतम घनत्व पर पहुंचती है। यह तंत्र अस्थियों, उपास्थियों, शिरा (टेंडन) और स्नायु, अस्थि रज्जु (लिगामेंट) जैसे संयोजी ऊतकों से बना है। मानव शरीर का ढांचा हड्डियों का बना होता है। सभी हड्डियां एक-दूसरे से जुड़ी रहती हैं। हड्डियों के ऊपर मांस पेशियां होती हैं जिनकी सहायता से हड्डियों के जोड़ों में गति होती है। मानव शरीर का ढांचा बनाने वाले को कंकाल तंत्र कहते हैं। 

नोट :- हड्डियों के अध्ययन को ओस्टियोलॉजी (Osteology) कहते हैं।

 

मानव कंकाल तंत्र मुख्य रूप से दो हिस्सों से बना है:-

1.      अक्षीय कंकाल (Axial skeleton 80 अस्थियां)

2.      उपांगी कंकाल (AP pendicular skeleton 126 अस्थियां)

 

 

 

 

1.      अक्षीय कंकाल (Axial skeleton 80 अस्थियां) :- 

यह कंकाल शरीर के मुख्य अक्ष का निर्माण करता है। यह कंकाल का वह हिस्सा है जिसमें मेरुदंड पसली पिंजर और खोपड़ी से मिलकर बना है वास्तव में अस्थियों का यह भाग शरीर के महत्वपूर्ण प्रश्नों को और सुरक्षा प्रदान करता है।

 

खोपड़ी के घटक :-

मानव की खोपड़ी में 29 अस्थियां होती हैं। इसको हम तीन हिस्सों में बांट सकते हैं। पहला मस्तिष्क को सुरक्षा देने वाली हड्डियां (क्रेनियम) दूसरा चेहरे की हड्डियां (फेसियल) और तीसरा कान की हड्डियां।

 

मस्तिष्क की हड्डियां (क्रेनियम):- 

इसमें कुल 8 हड्डियां होती हैं और मस्तिष्क के लिए हेलमेट के रूप में कार्य करती है। इनके नाम निम्न हैं -

1. फ्रंटल (Frontal)               2. पैराइटल (Parietal)                 3. टेंपोरल (Temporal)  

4. आक्सीस्पीटल                  5. स्फेनाएड (Sphenoid) 6. एथेनायड (Ethenoid)

 

चेहरे की हड्डियां:-

            इसमें कुल 14 छोटी-छोटी हड्डियां होती हैं।

1.                  नेजल (Nasal) [2 की संख्या]

2.                  पैलेंटाइल [2 की संख्या]

3.                  टरबाइनल [2 की संख्या]

4.                  वोमर [1 की संख्या]

5.                  लैक्राइमल [2 की संख्या]

6.                  जाइगोमैटिक [2 की संख्या]

7.                  मेण्डिबल [1 की संख्या]

8.                  मैग्जिबल [1 की संख्या]

कान की हड्डियां : इनमें कुल 6 हड्डियां होती हैं

1.      मेरियस/हैमर (Malleus/Hammer) [2 की संख्या]

2.      इनकस (Incus) [2 की संख्या]

3.      स्टेप्स (Stapes) [2 की संख्या]

 

पसली पिंजर की हड्डियां :

यह मानवों और अधिकांश कशेरुकी प्राणियों के वश में स्थित एक हड्डियों का ढांचा होता है। इसकी हड्डियों को पसलियां कहा जाता है। यह वह गुफा में स्थित महत्वपूर्ण अंगों की रक्षा करता है जिनमें हृदय, फेफड़े, श्वास नली, ग्रास नली, थाइमस ग्रंथि इत्यादि शामिल हैं। सांस लेते समय फैलते सिकुड़ते हुए फेफड़े इस पिंजर के भीतर रहते हैं।

 

उरोस्थि (Sternum) :- 

पसलियों को जोड़ने वाली अस्थि को उरोस्थि कहते हैं और उरोस्थि के साथ मिलकर पसलियां वक्ष पिंजर का निर्माण करती हैं। यह मनुष्य के छाती के मध्य में होती है जिसकी संख्या एक होती है।

 

पसलियां :-

शरीर में पसलियों की संख्या 24 होती है तथा वक्ष में दोनों ओर 12-12 स्थित होती हैं। यह कमान की भांति झुकी हुई होती हैं। पीछे की ओर वक्षीय कशेरुका (backbone) में और आगे की ओर उरोस्थि से जुड़ी रहती है। 

प्रथम 7 जोड़ी 'यथार्थ' (true ribs) 8, 9 10 जोड़ी गौण (false ribs) तथा 11, 12वी जोड़ी की पसलियों को चाल्य पसलियां (floating ribs) कहा जाता है। 

  • यथार्थ पसलियां (7 जोड़ी) उरोअस्थि से जुड़ी रहती हैं। 
  • गोण पसलियां (3 जोड़ी) क्रमश: छोटी होती जाती हैं और प्रत्येक पसली का अगला शिरा अपने से ऊपर वाली पसली के नीचे के भाग से जुड़ा रहता है।

 

चाल्य पसलियां (2 जोड़ी) कोख के पास होती हैं। यह अंतिम और सबसे छोटी होती हैं। इन पसलियों के अगले सिरे छाती की हड्डी तक तो पहुंचते ही नहीं साथ ही वे अपने से ऊपर की पसलियों से भी जुड़े हुए नहीं होते हैं। इन पसलियों के बीच जो अंतर होता है उनमें मांस पेशियां भरी रहती हैं। सांस लेते समय मांस पेशियों के सिकुड़ने और फैलने के कारण ही पसलियां भी आगे और पीछे होती दिखाई देती हैं।

 

मेरुदंड (backbone/vertebral column):-

यहां एक लचीला कई खंडों में विभाजित लंबे छड़ के आकार का होता है। यह पीठ की हड्डियों का समूह है जो मस्तिष्क के पिछले भाग से निकलकर गुदा के पास तक जाती है। यह शरीर की दूरी बनाता है। या नीचे के सिर का समर्थन करता है और उसे संतुलित स्थिर अवस्था में रखता है। इसमें 33 खंड होते हैं। मेरुदंड के भीतर ही मेरे नाल में मेरुरज्जु सुरक्षित रहता है। 

मेरुदंड के विभिन्न भाग निम्नलिखित हैं:

1.      ग्रीवा (सर्वाइकल) - इनकी संख्या 7 तक होती है। 

2.      वक्षीय (थोरेसिक) - इनकी संख्या 12 होती है और 12 जोड़ी पसलियां इन से ही जुड़ी रहती हैं। 

3.      कटिपरक (लंबर) -  इनकी संख्या 5 होती है। 

4.      त्रिकास्थि (सैक्रम) - इनकी संख्या बचपन में पांच अलग-अलग रूप में होती है पर वशरूम होने के कारण यह सभी एक ही हड्डियों के रूप में समाहित हो जाते हैं जिससे सैक्रम अस्थि के नाम से जाना जाता है। 

5.      कोकाइक्स - इनकी संख्या आपस में समान होने के पश्चात एक ही हड्डी के रूप में होती है। इसे टेलबॉन भी कहते हैं। 

 

हिआइड (Hyoid) अस्थि

यह संख्या में एक होती है। इसका आकार अंग्रेजी के अक्षर U की तरह होता है। यह अस्थि थोड़ी और कठनली के बीच गर्दन में स्थित होती है।

 

 

 

परिशिष्ट/उपबंध/उपांत्रीय कंकाल (अपेंडिकुलर स्केलेटिन)

मानव कंकाल के 206 हड्डियों में से उपबंध कंकाल में 126 शामिल हैं। इसके अंतर्गत मेखलाएं/कमर तथा हाथ पैरों की हस्तियां आती हैं। इसलिए हम परिशिष्ट कंकाल को छह प्रमुख क्षेत्रों में विभाजित करते हैं

ऊपरी अंग की हड्डियां

(Upper Limb)

[64 हड्डियां)

1.      आंस पेशी घेरा या कंधा (4 हड्डियां) –

            हँसली (2) (Clavical), स्कंधास्थि (2) (Scapula)

2.      हाथ की हड्डियां (Upper limbs) –

            बायां और दायां ह्यूमस (2), अल्ना (2), रेडियस (2), कार्पल (16), मेटाकार्पल्स (10), समीपस्थ फैलेन्जेस (10), मध्यवर्ती फैलेन्जेज (8), डिस्टल फैलेब्जेज (10)

ऊपरी अंग की हड्डियां

(Lower Limb)

[62 हड्डियां)

3.      श्रोणि चक्र (Pelvic Girdle) - इसमें कूल्हे की हड्डियाँ आती हैं। एक बायें कूल्हे की और दूसरी दायीं कूल्हे की हड्डी। (कुल 2 हड्डियां)

4.      जांघ और पैर की हड्डियां (8 हड्डियां) - दायां और बायां फीमर (2), (जांघ में), पटेला (2) (घुटने में), टीविया (2), फाइबुला (2)

5.      टखने की हड्डी (52 हड्डियां) - बायें और दायें टारसल (14) (टखने में), मेटाटरसल (10), समीपस्थ फैलेन्जेल (10), मध्यवर्ती फैलेन्जेस (8), और बाहर का फेलेन्जेज (10).

 

कंकाल तंत्र के मुख्य कार्य -

1.      शरीर को आधार एवं सुनियोजित आकार प्रदान करना। 

2.      शरीर के सभी कोमल अंगों की रक्षा करना। 

3.      यह लीवर की तरह कार्य करते हुए शरीर में गति प्रदान करने का कार्य करते हैं। 

4.      यह अस्थि मज्जा (Bone Marrow) में रक्त कोशिकाओं का निर्माण करता है। 

5.      हड्डियां जब क्षतिग्रस्त हो जाती हैं तब वे स्वयं की मरम्मत करने में सक्षम होती हैं।

 

हड्डियों के प्रकार 

मानव कंकाल की हड्डियों को आकार के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है -

1.लंबी हड्डियां (Long Bones)    2.छोटी हड्डियां (Small Bones)             

3. सपाट हड्डियां (Flat Bones)   4. अनियमित हड्डियां (Irregular Bones)

5. सिस्मायड हड्डियां (Sesamoid Bones)

 

1.      लंबी हड्डियां :- यह हड्डियां कितनी चौड़ी होती हैं उससे कहीं ज्यादा लंबी होती हैं। इनमें एक सॉफ्ट और दो गोल सिरे होते हैं। गोल सिरे एप्लीकेशन आर्टिकुलर कार्टिलेज से ढके रहते हैं और लाल अस्थि मज्जा से भरे होते हैं। जो रक्त कोशिकाओं का निर्माण करते हैं। अंगूठी अधिकांश हड्डियां लंबी हड्डियां होती हैं जैसे पैरों की हड्डियां भी मरती भी आप ही बुला हाथों की हड्डियां युवराज अंगुलियां एवं पैरों की हड्डियां।

2.      छोटी हड्डियां :- यह घनाकार हड्डियां होती हैं जो सामान चौड़ाई और लंबाई की होती हैं इनका मुख्य कार्य हल्के गति में सपोर्ट और स्टेबिलिटी स्थिरता प्रदान करना है। यह हड्डियां पूरी तरह से एक स्पंजी पदार्थ द्वारा बनी होती हैं जो एक पतले कंपैक्ट हस्ती से ढकी होती हैं। जैसे हाथ में कलाई कार्पल्स और पैर में टखने की हड्डियां टाइटल इस प्रकार की श्रेणी में आते हैं।

3.      चटपटी हड्डियां :- यह हड्डियां दिखने में सपाट होती हैं यह पतली और अपेक्षाकृत जोड़ी हड्डियां होती हैं जहां अंगों के व्यापक सुरक्षा की आवश्यकता होती है या मांस पेशियों के लगाओ कि व्यापक सुधारों की आवश्यकता होती है। इनके उदाहरण के रूप में पुरुष थी सीने की हड्डियां पसलियां रेप्स स्कैपुला कंधे के ब्लेड और खोपड़ी स्टनर आदि शामिल हैं।

4.      अनियमित हड्डियां :- इन हड्डियों का आकार पूरी तरह से जटिल और अनियमित होता है। यह किसी भी आकार की श्रेणी में नहीं आते हैं। इन हड्डियों में छोटी सपाट योगदान और उभरी हुई सत्य हो सकती हैं। उदाहरण में कशेरुक कूल्हे की हड्डियां और कई खोपड़ी की हड्डियां हैं।

5.      सिस्माइंड हड्डियां :- यह हड्डियां छोटी और चपटी होती हैं। यह टंडन और संयुक्त कैप्सूल में एंबेडेड नोड्यूल्स के रूप में होती हैं। इनके पास किसी भी प्रकार का प्रयास टाइम नहीं होता है और इनका जन्म भी जन्म के उपरांत होता है। इस प्रकार की हड्डियां घुटनों पटेला कृषि फार्म और पैरों में पाई जाती हैं।

 

संधि/जोड़ (Joints) :-

जोड़ वे स्थान हैं जहां कंकाल की हड्डियां एक दूसरे से जुड़ती हैं। जैसे कंधे कोहनी और कूल्हे की संधि। इनका निर्माण शरीर में गति सुगम करने और यांत्रिक आधार हेतु होता है। अधिकांश जोड़ों की संरचना इस प्रकार की होती है कि वह गति प्रदान करें परंतु कुछ जोड़ा ऐसे भी हैं जो गति की अनुमति नहीं देते हैं।

 

शरीर में विशेषकर तीन प्रकार की संधियां पाई जाती हैं

1.      अचल/रेशेदार जोड़ (Fibrous Joints)

2.      अर्धचल/थोड़े चलने योग्य जोड़ (Cartileginous Joints)

3.      चल/स्वतंत्र रूप से चलने योग्य जोड़ (Sinovial Joints)

 

1.        अचल संधि - इन संधियों में स्त्रियों के संधि पृष्ठ का सहयोग हो जाता है। इन हस्तियों के बीच कुछ भी अंतर नहीं होता। इस प्रकार के अस्थि के संगम स्थान पर किसी भी प्रकार की गति नहीं हो पाती। दोनों ही हस्तियां तंतु तक फाइबर्स टिशु द्वारा आपस में जुड़ी रहती हैं। यह जोड़ी स्थिरता और सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण होते हैं। उदाहरण के लिए खोपड़ी की हड्डियों का जोड़ हाथ की हड्डियों और रेडियस और नीचे पैर की हड्डियों टीवी और फार्मूला के बीच 1 जोड़ होता है।

2.        अर्धचल संधि - इस प्रकार के जोड़ों में कुछ गति की अनुमति होती है लेकिन अचल जोड़ों की तुलना में कम ही स्थित था प्रदान करते हैं। इन जोड़ों को संरचनात्मक रूप से कार्टिलेजिनस जोड़ों के रूप में वर्गीकृत किया गया है क्योंकि हड्डियों को जोड़ने के लिए उपास्थि द्वारा जोड़ा जाता है। इस प्रकार के जोड़ों के उदाहरण पसली पिंजर रीढ़ की हड्डियों और कूल्हे की दाएं और बाएं तरफ की हड्डियों में पाया जाता है। कार्टिलेज एक सख्त रोजगार संयोजी ऊतक है जो हड्डियों के बीच घर्षण को कम करने में मदद करता है कार्टिलेजिनस जोड़ों में दो प्रकार के कार्टिलेज पाए जाते हैं पहला हाईली नी कार्टिलेज दूसरा फाइब्रोकार्टिलेज।

1.      पसली पिंजर (हायलिन कार्टिलेज) बहुत ही लचीला और लोचदार होता है। रिब केज की कुछ हड्डियों के बीच पाए जाते हैं।

2.      फाइब्रोकार्टिलेज सीमित गति की अनुमति देते हुए हड्डियों को समर्थन प्रदान करते हैं। फाइब्रोकार्टिलेज मजबूत और कम लचीला होता है। की हड्डियों के बीच स्थित डिस्क फाइब्रोकार्टिलेज से बना अर्थ चल संधि का एक उदाहरण है। प्यूबिक सिंफिसिस जो बाएं और दाएं कूल्हे की हड्डियों को जोड़ता है हरद चल जोड़ का एक उदाहरण है जो हड्डियों को फाइब्रोकार्टिलेज से जोड़ता है।

3.        चलसंधि - इस प्रकार की संधि में स्वतंत्र रूप से गति करने की अनुमति होती है आबाद होती है। एक दिशा दिशा दिशा में हो सकती है प्रत्यक्ष रूप से संपर्क नहीं होता है।

 

चल संधियों के भेद - इस संधि के 6 प्रकार हैं –

1.      विवर्तिका संधि (Pivot Joint) - इस प्रकार की संधि में एक हड्डी कुंडल की भांति बन जाती है और दूसरी किवाड़ की चूल की भांति उसके भीतर बैठ कर घूमती है जैसे वाह मित्र जा रेडियस और मुन्ना काजोल कलाई गर्दन की हड्डी पर सिर की गति इस प्रकार की संधि में रोटेशन गति की अनुमति प्रदान करता है यह जो सिर को बाएं से दाएं और आगे और पीछे की ओर घूमने की अनुमति देता है।

2.      स्थूल काय संधि (Condyloid Joint) - इस प्रकार की संधि में एक हड्डी पर अंडाकार आकार का सील दूसरे हड्डी में अंडाकार गोवा गड्ढे में चलता है जिससे दूरी के चारों ओर घूमने को छोड़कर सभी दिशाओं में गतिशीलता की अनुमति मिलती है। इसमें आपको चन विस्तार अभी बर्तन अपवर्तन परावर्तन इत्यादि क्रियाएं होती हैं। उदाहरण के रूप में मणिबंध अर्थात कलाई की संधि रेडियस और अग्रबाह की कलाई की कार पल हड्डियों के बीच का जोड़।

3.      काज/कोर संधि (Hing Joint) - एक कार संयुक्त दरवाजे के कांच की तरह आगे और पीछे की गति की अनुमति देता है। इस जोड़ों का उदाहरण कोनी है। यह जोड़ हाथ को आगे और पीछे झुकने की अनुमति देता है अर्थात एक ही अक्ष पर गति कर सकती है।

4.      पर्याण संधि (Saddle Joint) - इस प्रकार की संधि में एक अस्थि का आकार जीन के समान होता है। यह एक दिशा में अवतल और दूसरी दिशा में उत्तल हो जाती है। जैसे हाथ में पहली मेटाकार्पल हड्डी और कलाई में कार्पल हड्डियों में से एक के बीच का जोड़ है। अंगूठे की मणिबंध करमे संधि। हम यह मान सकते हैं कि घोड़े के पीठ पर सवार को बैठने के लिए उपयोग में लाया जाने वाला आसन या सीट के जैसा आकार वाली संधि।

5.      समतल संधि (Gliding Joint) - यह संधि दो हड्डियों को एक दूसरे पर सरकने की अनुमति देता है। पैर के टखने में टार्सल अस्थि और हाथ की कलाई में कार्पल अस्थि इस संधि के अन्तर्गत आते हैं।

उलूखल संधि (Ball and Socket Joint):- इस प्रकार की संधि किसी भी चल संधि की गति की सबसे बड़ी रेंज की अनुमति देता है। इस संधि में से अस्थि में गड्ढा बन जाता है दूसरी अस्थि का एक सिरा कुछ गोल पिंड के रूप में इसी गड्ढे रूपी अस्थि में स्थित हो जाता है। संधिविवर तथा स्नायु द्वारा संधि दृढ हो जाती है जिससे संधि की प्रत्येक दिशा में गति हो सकती है और स्वयं अपने अक्ष पर घूम सकती हैं (रोटेशन गति। मानव शरीर में कंधे और कूल्हे बाल एंड साकेट के उदाहरण हैं।

 

कान/कर्ण की संरचना :

            कान शरीर का एक आवश्यक अंग है जिसका कार्य सुनना एवं शरीर का संतुलन (Equilibrium) बनाये रखना है। इसी अंग से ध्वनि की संज्ञा का ज्ञान होता है। मनुष्य का कान कहने को तो बाहर से दिखने वाला सरल घुमावदार अंग है। पर जितना हिस्सा बाहर दिखता हैउससे कई गुना अधिक अंदर होता है। कान की संरचना और कार्य बहुत ही जटिल होते हैं क्योंकि कान में अति संवेदनशील व बेहद नाजुक अंग जुड़े होते हैं। यह सभी साथ मिलकर हिें कई सकारी सुविधाएं प्रदान करते हैं। मानव के प्रमुख संवेदी अंगों में से यह एक है जो हमें कई प्रकार की जानकारी मुहैया करवाता है। अध्ययन की दृष्टि से इसे तीन प्रमुख भागों में बाँटा गया है -

1.      बाह्य/बाहरी कर्ण (Outer Ear)

2.      मध्य कर्ण (Middle Ear)

3.      अंतः कर्ण (Inner Ear)

 

1.      बाहरी कर्ण (Outer Ear):- यह नरम, मुलायम ऊतकों और रोमकूपों से ढका हुआ भाग होता है। बाह्य कर्ण के दो भाग होते हैं

1. कर्णपाती (Pinna), 2. बाह्य कर्ण कुहर (External Auditory Meatus)

 

1.      कर्णपाती (पिन्ना) - कान सिर के पीछे से बाहर को निकला रहने वाला भाग होता है जो लचीने फाइब्रो-कार्टिलेज (Fibro Cartilage) से निर्मित तथा त्वचा से ढँका रहता है। यह सिर के दोनों तरफ स्थित रहता है। इसका आकार टेढ़ा-मेढ़ा और अनियमित होता है। इसका बाहरी किनारा हेलिक्स (Helix) कहलाता है। निचला लटका हुआ भाग (Ear lobule) कोमल होता है और वसा संयोजक ऊतक (Adipose connective tissue) से निर्मित होता है। इसमें रक्तवाहिनियों की आपूर्ति बहुत अधिक रहती है और रक्त का संचार लगातार होता रहता है। कर्णपाली ध्वनि से उत्पन्न तरंगों को एकत्रित करके आगे कान के अंदर भेजने में सहायता करता है।

2.      बाह्य कर्ण कुहर - यह अंग्रेजी के अक्षर S के समान घुमावदार, लगभग 2.5 सेमी लम्बी, कान के पर्दे (इयर ड्रम) तक पहुँचने वाली सँकरी नली होती है। इसका एक तिहाई बाहरी भाग कार्टिलेज से बना होता है तथा शेष दो तिहाई भाग एक नली के रूप में टेम्पोरल हड्डी से जुड़ जाता है। समस्त बाह्य कर्ण कुहर रोमिल त्वचा से ढँका रहता है। इस भाग की त्वचा में बहुत सी सीबेरियस  और सेर्यूमेनस ग्रन्थियाँ होती हैं जो क्रमशः तैलीय स्राव एवं सेर्यूमेन स्रावित करती हैं। ईयर वैक्स (Ear wax) से बालों से तथा कुहर के घुमावदार आकार के कारण बाहरी वस्तुएं जैसे धूलकण, कीट-पतंगें आदि कान के भीतर नहीं जा पाते हैं।

 

कर्ण पटह/कान का पर्दा (Timponic Membrane) :- यह बाहरी कान एवं मध्य कान के बीज विभाजन करने वाली चौकोस आकार की एक पतली फाइबर्स की शीट होती है। इसे ईयर ड्रम (Ear drum) भी कहा जाता है। ईयर ड्रम मध्य कान की ओर दबा सा रहता है। बाहरी कान तथा बाह्य कर्ण कुहर दोनों ही ध्वनि तरंगों को एकत्रित करके भीतर भेजते हैं। जब ध्वनि तरंगे कर्णपटह (Ear drum) से टकराती हैं तो उसमें प्रकम्पन (Vibration) उत्पन्न होता है जिसे मध्य कान की अस्थिकाओं द्वारा आगे भेज दिया जाता है।

 

2.      मध्य कर्ण (Middle Ear) :- मध्य कान यूस्टोशियन ट्यूब द्वारा नाक की गुफा से जुड़ा रहता है। यूस्टेशियन ट्यूब के कारण मध्य कान वातावरण में अचानक हुए दबाव में बदलाव को झेल सकती है। अगर अचानक किसी विस्फोट या धमाके की आवाज कान के पर्दे से टकराए तो वह फटता नहीं है क्योंकि यह जबरदस्त दबाव इसबरी ट्यूब (यूस्टेशियन ट्यूब) द्वारा नाक की गुहा में चला जाता है। मध्य कान कर्णपटह एवं अंतःकर्ण के बीच स्थित एक छोटा कक्ष (chamber) है। इसमें कर्णपटही गुहा (Tympanic Cavity) एवं लवणीय अस्थिकाओं (Auditory Osictes) का समावेश होता है।

कर्णपटही गुहा टेम्पोरल हड्डी के अश्माभ भाग (Petrous portion) में स्थित सँकरा हवा से भरा हुआ खोखला स्थान है। टेम्पोरल हड्डी की पतली प्लेटें इसकी छत और फर्श बनाती हैं जो टिम्पेनिक गुहा को ऊपर से खोपड़ी के बीच के भाग (मिडिल केनियल फोसा) से तथा नीचे से गले की वाहिकाओं (ग्रीवा वेसेल्स) से पृथक करती हैं। पश्चभित्ति (Posterior wall) में एक द्वार होता है जो कर्णमूल वायु कोशिकाओं (Mastoid air cells) में खुलता है। इसमें हड्डी का एक कोन आकार का पिण्ड (पिरामिड) भी होता है जो स्टैपीडियस पेशी से घिरा हुआ होता है। इस पेशी का टेन्डन द्वार (छिद्र) से गुजरकर पिण्ड के शिखर पर स्टेपीस हड्डी से जुड़ता है।

 

श्रवणीय अस्थिकाएं (Auditory Ossicles) इसमें छोटी-छोटी तीन अस्थियां (मैलियस, इन्लस तथा स्टैपीज) है जो श्रृंखलाबद्ध तरह से कर्णपटह से लेकर मध्यवर्ती पर स्थित अण्डाकार छिद्र (Fenestra Ovalis) तक स्थित रहती है। प्रत्येक अस्थि का छोर, दूसरे अस्थि के सिरे से संधिबद्धघ रहता है।

3.      अंतः कर्ण :- आंतरिक कान या लैबरिँथ शंखनुमा संरचना होती है। इस स्थान पर द्रव भरा रहता है। यह भाग आवाज के कम्पनों को तंत्रिकाओं के संकेतों में बदलता है। ये संकेत आठवीं मस्तिष्क तंत्रिका द्वारा दिमाग तक पहुँचती है। भीतरी कान (लैबरिंथ) की अंदरूनी केशनुमा संरचनाएं आवाज की तरंगों की आवृत्ति के अनुसार कम्पित होती हैं। आवाज की तरंगों को किस तरह अलग-अलग किया जाता है यह समझना बहुत ही मजेदार है। भीतरी कान में स्थित पट्टियों की संरचना हारमोनियम के जैसे अलग-अलग तरह से कम्पित होती है अर्थात् आवाज की तरंगों की किसी एक आवृत्ति से कोई एक ही पट्टी कम्पित होगी और मस्तिष्क इसे एक खास स्वर की तरह ग्रहण कर लेता है।

यह टेम्पोरल अस्थि के अश्माभ (पेट्रस पोर्शन) में स्थित श्रवणेन्द्रियों का प्रमुख अंग है। इसी अंग में सुनने एवं संतुलन के अंग अवस्थित होते हैं।

इसकी बनावट टेढ़ी-मेढ़ी एवं जटिल है जो कुछ-कुछ घोंघे (स्नेल) के आकार जैसा होता है। इसमें अस्थिल लैविरिन्थ तथा कलामय लैबिरिन्थ (मेंब्रेनस लैबिरिंथ) दो मुख्य रचनाएं होती हैं जो एक दूसरे के भीतर रहती हैं।

अस्थिल लैबिरिन्थ – अस्थिल लैबिरिन्थ एक टेढ़ी-मेढ़ी अनियमित आकार की नलिकाओं की एक श्रृंखला है जो परिलसीका नामक तरल से भरा रहता है।

कलामय लैविरिन्थ अस्थिल लैबिरिन्थ में स्थित रहता है। इसमें यूट्रिकल, सैक्यूल, अर्धवृत्ताकार वाहिकाएं एवं कोक्लियर वाहिका का समावेश रहता है। इस समस्त रचनाओं में अन्तःकर्णोद (इंडोलाइम्फ)  तरल भरा रहता है तथा सुनने एवं संतुलन के समस्त संवेदी रिसेप्टर्स विद्यमान रहते हैं। इसमें निम्न तीन रचनाओं का समावेश होता है –

1.      प्रघाण या वेस्टिब्यूल

2.      अर्धवृत्ताकार नलिकाएं (3 सेमीसर्कुलर कैनाल्स)

3.      कर्णावर्त या काक्लिया

 

मानव नेत्र की संरचना (Structue of Human Eye)

            नेत्र एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण तथा सुग्राही ज्ञानेन्द्री है जो देखने के योग्य बनाता है। हम अपने चारों तरफ फैले रंग-बिरंगे संसार को देखने के लिए नेत्र का उपयोग करते हैं।

नेत्र एक कैमरे की तरह ही कार्य करता है, कैमरे का आविष्कार हमारे नेत्रों को ही देखकर किया गया है और यह कहना उचित होगा कि एक कैमरा हमारी आँखों की तरह ही कार्य करता है।

मानव नेत्र की संरचना एक गोले के आकार की तरह होती है। प्रकाश की किरणें जो कि किसी वस्तु से आती हैं हमारी आँखों में लगे लेंस के द्वारा ही प्रवेश करती हैं। यही प्रकाश की किरणें रेटिना पर प्रतिबिम्ब बनाती हैं। दृष्टिपटल एक तरह का प्रकाश संवदी पर्दा होता है जो कि आँखों के पृष्ठ भाग में होता  है। दृष्टि पटल प्रकाश सुग्राही कोशिकाओं के द्वारा ही प्रकाश तरंगों के संकेतों को मस्तिष्क तक भेजता है और हम संबंधित वस्तु को देखने में सूक्ष्म हो पाते हैं। आँखों के द्वारा किसी कभी वस्तु को देख पाना एक जटिल प्रक्रिया है।

1.      नेत्र गोलक – नेत्र का आकार गोले की तरह होता है जो नेत्र गोलक कहलाता है। इसका व्यास लगभग 2.3 सेमी के बराबर होता है। इसे कई भागों में बाँटा गया है। इसमें कुल 6 मांसपेशियां होती हैं जो आँख को पकड़ कर रखती हैं।

2.      स्वच्छ मंढल या कार्निया – किसी वस्तु से आने वाली किरणें जो कि एक पारदर्शी पतली झिल्ली से होकर प्रवेश करती हैं स्वच्छ मंडल या कार्निया कहलाती है। कार्निया आँखों की पुतली, परितारिका तथा नेत्रोद को ढकने के काम आता है।

कार्निया पर ही किसी वस्तु से आने वाली अधिकांश प्रकाश की किरणों का अपवर्तन होता है।

कार्निया में रक्त वाहिकाएं नहीं होती हैं इसी कारण से कार्निया को बाहर से ही अश्रु द्रव के विसरण के द्वारा भीतर से नेत्रोद के विसरण से पोषण मिलता रहता है।

3.      परितारिका (आइरिश) – कार्निया के पीछे एक गहरे रंग की संरचना होती है जिसे परितारिका कहते हैं।

यह एक पतला, गोलाकार तथा गहरे रंग का पेशीय डायफ्राम होता है जो पुतली के आकार को नियंत्रित करता है। ताकि रेटिना तक प्रकाश की आवश्यक एवं सही मात्रा पहुँच सके। पुतली ही नेत्र में प्रवेश करने वाले प्रकाश की मात्रा को नियंत्रित करती है।

किसी व्यक्ति की आँखों का विशेष रंग परितारिका के रंगों द्वारा ही निर्धारित होता है।

4.      पुतली (प्यूपिल) – परितारिक के बीच एक गोल छेद जैसा होता है जिसे पुतली कहते हैं। पुतली ही नेत्र में प्रवेश करने वाले प्रकाश की मात्रा को नियंत्रित करती है ताकि रेटुना तक प्रकाश की सही एवं आवश्यक मात्रा पहुँच सके। मनुष्य की पुतली का आकार गोलाकार होता है।

5.      लेंस/अभिनेत्र/क्रिस्टलीय लेंस – आँखों का लेंस जो कि अन्य लेंसों की तरह ही होता है। आँखों में पारदर्शी डबल-उत्तल लेंस होता है जो कि रेशेदार अवलेह जैसे पदार्थ से बना होता है।

यह परितारिक के ठीक नीचे अवस्थित रहता है।

अभिनेत्र लेंस किसी भी वस्तु से आने वाली प्रकाश की किरणों को अपवर्तित कर उसका उल्टा तथा वास्तविक प्रतिबिम्ब रेटिना पर बनाती है।

6.      दृष्टिपटल (रेटिना) – यह आँखों के पिछले भाग में होता है जो कि परितारिका के पीछे होता है। यह एक कोमल, सूक्ष्म झिल्ली होती है जिसमें बहुत अधिक संख्या में प्रकाश सुग्राही कोशिकाएं होती हैं।

किसी भी वस्तु से आने वाली प्रकाश की किरणें लेंस से अपवर्तन के बाद प्रतिबिम्ब रेटिना पर बनाती हैं। रेटिना पर प्रतिबिम्ब बनते ही इसमें उपस्थित प्रकास सुग्राही कोशिकाएं सक्रिय हो जाती हैं तथा विद्युत सिग्नल उत्पन्न करती हैं। इस विद्युत संकेतों को तंत्रिकाओं के द्वारा मस्तिष्क तक पहुँचा दिया जाता है।

 

नेत्रों के देखने की कार्यविधि (The Mechanism of Sight)-

नेत्रों के देखने की कार्यविधि पूर्णतः एक कैमरे के समान कार्य करती है। जिस प्रकार कैमरे में शटर हटाकर लेंस पर आँख लगाकर देखा जाता है ठीक उसी प्रकार पलकें आँखों के लिए शटर का कार्य करती हैं। प्रकाश के प्रवेश के लिए कार्निया एक खिड़की के रूप में कार्य करता है। आइरिश का पर्दा भीतर प्रवेश करने वाले प्रकाश की मात्रा को नियंत्रण करता है। लेंस से प्रकाश की किरणें फोकस करती हैं। मध्य पटल फोटो कैमरे के प्रकाश रोधक बाक्स की काली दीवार का कार्य करता है, जिससे अक्षिगोलक के अभ्यान्तर में एक अन्धकारमय कक्ष तैयार होता है और प्रकाश के प्रति संवेदनशील फोटोग्राफी प्लेट का कार्य दृष्टिपटल करती है।

 

नेत्रों का समायोजन (Accomudation of eyes) :-

हमारी आँख दूर या पास की वस्त को देखने के लिए लेंस की मोटाई में परिवर्तन करती रहती है। आँख में दूरी परिवर्तन करने से वस्तु साफ दिखाई पड़ने लगती है जिसे समायोजन कहते हैं।

आराम की स्थिति में जब शरीर शिथिल होता है तो इस स्थिति में आँख का लेंस कुछ चपटा सा बना रहता है। यह चपटा लेंस दूर की वस्तुओं को देखने के लिए उपयुक्त रहता है, किन्तु जब पास की वस्तुओं को देखना होता है तो सीलियरी बाडी की पेशियाँ सिकुड़ जाती हैं जिससे लचीला लेंस अधिक मोटा हो जाता है और मानव शरीर के नेत्र सिर पर आगे की ओर आस-पास स्थित होते हैं ताकि दोनों आँख एक ही वस्तु पर केन्द्रित हो सके। इसे द्विनेत्रीय दर्शिता (Binocular Vision) कहते हैं।

 

सामान्य दृष्टि-दोष (Errors of Reflection)-

आँखों में अनेक प्रकार के दोष पाये जाते हैं। इनमें दृष्टि वैषम्य, भेंगापन, मोतियाबिंद आदि प्रमुख हैं। किन्तु अधिकांशतः दो नेत्र दोष व्यक्तियों में पाये जाते हैं जिनमें एक है निकट दृष्टिदोष (मायोपिया) और दूसर है दूर दृष्टि दोष (हायपर मायोपिया) होता है।

मानव के नेत्र गोलक सामान्यतः जन्म के समय लगभग 17.5 मिमी. तथा वयस्कों में 20-21 मिमी. के होते हैं। नेत्र गोलक में घुसने वाली समस्त प्रकाश किरणें कार्निया लेंस आदि पर टकराकर रेटिना के पहले ही केन्द्रित हो जाती हैं और फिर रेटिना पर पड़ती हैं।

इस प्रकार सामान्य नेत्रों द्वारा हम 10 सेमी. से 50 सेमी. दूर की वस्तुओं को साफ देख सकते हैं। किन्तु कभी-कभी नेत्र गोलक के कुछ छोटे होने पर या बड़े होने पर या बड़े हो जाने पर लेंस सीलियरी पेशियों की लचक कम हो जाने के कारण ही निकट दृष्टि-दोष या दूर दृष्टि-दोष उत्पन्न हो जाते हैं।

 

दूर दृष्टि-दोष (हायपर मायोपिया) –

इसके अन्तर्गत नेत्र गोलक के छोटे हो जाने से किरणों का केन्द्रीयकरण रेटिना से पीछे होने लगता है जिससे दूर की वस्तुएं तो साफ दिखाई देती हैं किन्तु निकट की वस्तुएं स्पष्ट दिखाई नहीं देती हैं।

इस दोष को मिटाने के लिए उत्तल लेंस (कान्वेक्स लेंस) प्रयोग में लाया जाता है जिससे किरणों की अभिबिन्दुकता बढ़ जाती है और उनका केन्द्रीयकरण रेटिना पर होता है। ये लेंस कार्निया द्वारा किरणों के नेत्र में प्रवेश होने से पहले ही उनको अभिबिन्दुक कर देते हैं।

दूर दृष्टि-दोष के निम्न लक्षण हैं –

·       निकट की वस्तुएं स्पष्ट नहीं दिखाई देती हैं।

·       पढ़ते समय आँखों से पानी बहने लगता है।

·       आँखों की गुहा में तथा सिर में दर्द होने लगता है।

·       पढ़ने-लिखने, सिलाई करने तथा अनाज बीनते समय दिक्कते होती हैं।

·       प्रायः पुस्तकों को बहुत स लाकर पढ़ना पड़ता है।

 

निकट दृष्टि-दोष (मायोपिया) –

इसमें प्रायः नेत्र गोलक के बड़े हो जाने या कार्निया अथवा लेंस के अधिक मोटा हो जाने के कारण रेटिना तथा केन्द्रित बिन्दु के बनच की दूरी बढ़ जाती है। अतः निकट दृष्टि-दोष में पास की वस्तुएं तो साफ दिखाई देती हैं किन्तु दूर की वस्तुएं प्रायः धुंधली दिखाई देती हैं।

अवतल लेंस (कानकेव लेंस) के द्वारा इस दोष को दूर किया जाता है। यह दोष प्रायः कम उम्र के बच्चों में भी हो जाता है। वैसे 18-20 वर्ष की आयु के बच्चों की आँखों में प्रायः यह दोष पाया जाता है।

निकट दृष्टि-दोष के निम्न लक्षण हैं –

         i.            दूर की वस्तुएं साफ नहीं दिखतीं, वे धुँधली दिखाई देती हैं।

       ii.            टीवी आदि देखने में परेशानी होती है।

      iii.            आँखों के ऊपरी भागों में तथा सिर में पीड़ा सी रहने लगती है।

     iv.            थोड़ी समय के लिए पढ़ने में, सिलाई करने या बीनने का काम करने पर आँखों में पानी आना शुरू हो जाता है।

 

3. दृष्टि वैषम्भ या एस्टिग्मटिज्म –

इसके अन्तर्गत कार्निया या लेंस से समस्त पृष्ठ को जाने वाली किरणें रेटिना पर एक ही स्थान पर केन्द्रित नहीं होती हैं, जिस कारण अनेक स्पष्ट बिम्ब बन जाते हैं। कार्निया तथा लेंस के अग्र, पृष्ठ जिनके द्वारा किरणें नेत्र में प्रवेश करती हैं, इसमें गोल पृष्ठ और व्यास होते हैं। इस सब व्यासों के द्वारा किरणें नेत्र में प्रवेश तथा उनके द्वारा किरणों का वर्तन होता है। इसलिए सभी किरणों के केन्द्र गतिका पर केन्द्रित होने के लिए यह जरूरी है कि कार्निया तथा लेंस के जितने भी व्यास हैं उनके द्वारा उनका समान रूप से वर्तन हो।

यह तभी हो सकता है जब प्रत्येक व्यास की गोलाई या मोड़ समान हो। यदि व्यासों की गोलाई में तनिक भी अन्तर होगा तो किरणों के वर्तन में अन्तर आ जाएगा और कई अस्पष्ट बिम्ब बन जाएंगे।



Comments